Book Title: Mahavira Jivan Vistar
Author(s): Tarachand Dosi
Publisher: Hindi Vijay Granthmala Sirohi

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Page 30
________________ [८] तव इस प्रकार प्रार्थना की कि “प्रिय बांधव मेरे ग्रहस्थावासकी । स्थितिका अब अन्त भागया है इसलिये मुझे दीक्षा ग्रहण करनेकी, आज्ञा दीजिये " अपने अनुजकी इस प्रार्थनाको सुनी । खेदसे गद्गदित होते हुए नंदीवर्द्धन बोले “भाई हमारे पिताका अवसान. हुए अभी बहुत समय नहीं हुआ है। उनका शोक अभी ताजा ही है और जो ऐसे समयमें तुम्हारा वियोग भी हो जावेगा तो दुःखसे मेरा हृदय फट जायगा' कल्यासागर वीरप्रमुको अपने बड़े माईक दीन वचनों पर . दया आई । उच्चकोटिके महापुरुष कोई भी कार्य चाहें व कितना ही विशुद्ध क्यों न हो परन्तु जिसके करनेसे दूसरोंको काट उत्पन्न होता है वह कभी नहीं करते । और न ऐसा होना सहन ही कर सकते हैं । वहुतसे प्रसङ्गोंपर तो यह. कष्ट रागांधतासे प्रकट होता है । इन अज्ञानजन्य भावोंकी तृप्तिक लिये प्रत्येक प्राङ्ग पर रुकना तो असंभवसा है फिर भी. अपने आदर्श जीवनमें किसीको न तो. कष्टका प्रसङ्ग देते हैं और न उसके निमित्त कारण आप ही होते हैं। दूसरोंकी अज्ञान वासनाओंको हर तरह निभानेका कार्य मात्र उत्कृष्ट कोटिके महात्माओंसे ही बन सकता है। सामान्य ज्ञानी ऐसे वृती नहीं होसकते और 'न. उनके लिये यह वस्तुः योग्य भी है अपने शत्रु और कल्याणकारी उद्देशको छोड़कर जगतकी मोहजन्य वासनाओंको तृप्त करनेके लिये बैठे रहनेसे ही स्वपरका श्रेय सिद्ध नहीं होता। इन वासनाओंका प्रत्याघात ऐसी अवज्ञा करनेवाले पर नहीं होता। क्योंकि अज्ञान और उसके समपरिणाम ज्ञान और ज्ञानीके परिणामोंके साथ संवटनमें आते ही प्रकाशसे अन्धकारकी भांति नष्ट होजाते

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