Book Title: Mahavira Jivan Vistar
Author(s): Tarachand Dosi
Publisher: Hindi Vijay Granthmala Sirohi

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Page 90
________________ [६८] यह अपनी सब युक्तियोंकी अजमाइश करता था वह कोई साधारण: सन्यासी अथवा संसारसे भगा हुआ भीरु मनुष्य नहीं था । . संसारके इन्द्रनालमें ठगे जानेवाली भूमिकाको वे बहुत कालसे उल्लंघ चुके थे । विषयोंके सामथ्र्यको पराजयको. तो उन्होंने संसारमें ही साधा था, पश्चात साधु हुए थे। संगमका आखिरमें कुछ नहीं चला । वह प्रभुको चलित करनेकी अपनी प्रतिज्ञामें आशाभग्न हो चुका । उसने देखा कि प्रमुके चित्तका एक भी अंश निर्बल नहीं कि जिसके द्वारा वह उनके अंदर प्रवेश करके उनका योग भ्रष्ट कर सके । महा पुरुष अपने वर्चसके रक्षण के लिये पहिले तो विषयके दाखिल होनेके सब द्वार बंद कर देते हैं । वे जानते हैं कि किलेमें एक स्थान पर फाड़. पड़ गया तो सारा दुर्ग विना गिरे हुए नहीं रहेगा। वे नित्य . अप्रमत्त उपयोगसे अपनी विशुद्धिका रक्षण करते रहते हैं। उनको आसक्तिके स्वरूपका ऐसा सूक्ष्म ज्ञान होता है कि मोहिनी मैया चाहे जैसा वेश धारण करके उनके अन्तर द्वारमें प्रवेश करनेका मार्ग शीघ्र लेती तो भी वह उसमें विजय प्राप्त कर सकती । परन्तु महावीर प्रमु तो महान् कोटिके पुरुषवर्य थे। संगमकी ये युक्तिएँ बिन अनुभवी और कचे योगी पर सफलता कर सकती थी। परन्तु. प्रमु पर उसका सब उद्योग निष्फल गया। वह म्लान और आशाभग्न मुँहको छिपाकर अपने स्थान पर चला गया। .. इसपरसे हमें यह स्पष्ट मालूम होता है कि अनुकूल संयोगोंमें हमारी विशुद्धिका संकल्प निभाना, प्रतिकूल संयोगोमें निभानेसे अधिक तर मुकिल है । जो इन प्रलोभक प्रसंगोमें अपनी

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