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[८] नेवालोंको स्वीकारना ही पड़ेगा:-" हमारी सुखसामग्रीका हम अकेले ही उपभोग करे " यही स्वार्थभावुना आत्माका अधःपतन करती है।
वासुदेवके भवमें अपने शय्यापालकके कर्णमें शीशा शेडनेकी जो कर शिक्षा महावीर प्रभुने की थी, उसके अन्तर्गत नो उग्रह और निष्ठुर परिणाम था वह उनको इस भवमें उदयप्राप्त प्रचंडवेदनीय प्रकृतिमें हेतुरूप था। एक अल्प अपराध करनेके लिये भयकर दंड करनेके कार्यमें वासुदेवकी जो तीव्र खार्थभावना और 'घातकी वृत्ति समाइ हुई थी उसके फलरूप वर्तमान भदमें महावीर प्रभुको वैसी ही शिक्षा सहन करनी पड़े इसमें कोई शक नहीं है कि यह निसर्गके नियमके विल्कुल अनुरूप होने योग्य था हमे कोई पूछनेवाला नहीं है और हमारे सेवकका जीवन मरण हमारे हाथमें है, इसलिये राग द्वेषानुकूल सजा कर देनेकी भावना रखना वासुदेवके लिये घटित न था। उसमें विशेष करके जव सेवक उस आज्ञाकी शिक्षाके विरुद्ध अपना कुछ वल आजमा नहीं सकता था। और प्रत्याघात करनेका उसको जरा भी समय नहीं मिला, उस समय वासुदेवको अपने वैरकी भावना पर अंकुश रखना चाहिये था । जव समक्ष मनुप्य हमारे विरुद्ध हाथ नहीं उठा सकता तब उसके प्रति काम लेनेमें मनुष्यको बहुत विवेक रखना चाहिये । हमारे कार्य विरुद्ध समक्ष मनुप्यको कुछ विरोध करनेकी अथवा अपना बल आजमाइश करनेकी तक प्राप्त हो तो दोनोंकी विरोधभरी रुक कितनेक अंशमें स्यूल भूमिका पर टक्कर खाकर नाश होजाती है और इससे बहुत उन कर्मबंध