Book Title: Mahavira Jivan Vistar
Author(s): Tarachand Dosi
Publisher: Hindi Vijay Granthmala Sirohi

View full book text
Previous | Next

Page 109
________________ [८७] उष्ण निश्वासमें लोहूको भी भस्मीभूत करनेका प्रचंड दावानलाशी गुप्त तौरपर समाया हुआ है। यह संदेशा अनेक पुरुष, विश्वको देते गये हैं इतिहासके प्रष्ट भी इसी सत्यकी शाक्षी देते हुए हमारे सामने पड़े हैं । अयोग्य दंड देनेकी वृत्तिसे सर्व प्रजा और सर्व खंडव्यापी राज्यसत्ताएं विनाश हो चुकी हैं, तो एक गरीब मनुष्य ऐसीवृत्तिके उग्र फलसे कैसे बच सकता है ? वासुदेवको ऐसी शिक्षा देते समय ऐसा ही गर्व था कि मेरे शासनचक्रमें रहनेवाले सर्व मनुष्योंके साथ मैं जो कुछ चाहूँ वह कर सकता हूँ। मेरे कार्यके सामने सिर उठानेवाली इत्तरसत्ता इस विश्वमें और कोई नहीं है। परन्तु वे अभिमानके आवेशमें इतना देखना भूल गये कि इस भवके अलावा अन्य भव भी है और इस भवके कार्यका फल आगामी भवमें मिलता है। सत्ता मनुष्यको अंधा बना देती हैं उस समय उसके अंदर पहिलेका निर्मल विवेक नहीं रहता है। वासुदेवके लिये यह वात बनी थी वे अपनी सत्ताके अंगमें रही हुई विवेक रखनेकी जबाबदारीका भान भूल गये। उसका परिणाम यह निकला कि इस भवमें महावीर प्रमुके देहमें उसका विपाक सहन करना पड़ा। ___ कष्ठ सहन करनेका ही जिसका वृत है उन वीर प्रभुने उस गढ़रियेके कार्यकी चोटको शान्तिपूर्वक सहन करली। वहांसे विहार करके अनुक्रमसे प्रभु एक नगरमें गये। वहाँ एक खरक नामक वैद्यने प्रभुके शरीरकी कांति निस्तेज देखकर अनुमान किया कि उनके शरीरमें कुछ शल्य होना चाहिये। शोध करते २ कॉनमें किले मालूम हुए। सिद्धार्थ नामक श्रेष्टिकी मददसे उस वैद्यने

Loading...

Page Navigation
1 ... 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117