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प्रभु कर्णमेंसे कीले खिंच निकाले । कहा जाता है कि उस समय जो वेदना प्रभुको हुई थी उसकी उत्कटताके कारण उनके मुखमेंसें भयङ्कर चिल्लाहटके प्रमाणु निकले थे। प्रभुको अनेक उपसर्ग हुए थे तो में उनके मुखसे एक भी कायरताका निश्वास न निकला था परन्तु इस आखिरी उपसर्गसे उनका उपयोग कुछ शिथिल हुआ था अथवा देहभाव अव्यक्ततासे उपस्थित होगया था। बहुतसे. इस वातको असमवित मानते हैं कि तीर्थङ्करके मुखसे ऐसी चिल्लाहट कभी नहीं हो सकती और बहुतसोका यह कथन है कि प्रभुके सब उपसर्गोंसे यह उपसर्ग अति कष्ठकर था। इस उत्कृष्ट उपसर्ग के पश्चात् प्रभुको एक भी उपसर्ग नहीं हुआ। दीक्षाके साड़ा बारह वर्ष उनके लिये कष्ठकी परम्परारूप ही थे। वे वारह वर्षमें साड़े अगीयारह वर्ष और पचीस दिन निराहार रहे थे तो भी उत्कृष्ठ पराक्रम क्षमा, निर्लोभता, आनव, गुप्ति और चितप्रसन्नता पूर्वक उन्होंने सब उपसगोको सहन किये । ज्यों सुगंधित द्रव्यको जलानेसे अधिक सुगंध आती है त्यों प्रभु भी विशेष और विशेष । परिसहसे विशेषमें विशेष विशुद्ध और आत्मभावको प्राप्त करते जाते थे। कष्ठ प्रसङ्ग ही देहाध्याससे मुक्त होनेके प्रसङ्ग हैं। मूर्ख मनुप्य उलटे उन प्रसंगोंमें देह सम्बन्धी ममत्व और हाय २ कर कर्मबंध करते हैं और देहभावको सदृढ बनाते हैं। विवेकी और मुमुक्षु जन उस अवसरपर देहादिक अपने नहीं है और आत्मा और देह तलवारके मियानकी नाइ भिन्न है, ऐसे अपरोक्ष अनुभव प्राप्त कर लेते हैं। प्रभुके कष्ठके इतिहासमेंसे हमे जो शिक्षण लेना है उसमेंसे'मुख्य यही है कि उनको ऐसे निमित्त प्राप्त होते ही देहा