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[७७] रहती है। कृतिका उपादान कारण उपरोक्त सामग्रीका समूह ही है; अर्थात् वह कृतिकी पूर्व पर्याय है। मेसा बनने योग्य है कि इतनी सामग्री होनेपर भी अक्सर उप्त भावदयावाले मनुष्यसे कृतिके प्रदेशमें नहीं जाया जाता कारण कि उसकी कृतिसे समक्ष मनुष्यका दुःख न टले तो उस कृतिका निष्फल व्यय होता है
और इससे उसकी विवेक शक्ति कृतिमें उतरनेसे रोकती है तो भी इस भावदयासे उसको जो फल मिलना है वही मिलता है। कृति नहीं बन सकती इसलिये उसको फल शक्तिमें न्यूनता नहीं रहने पाती कारण कि कृति न होनेमें उसका प्रमाद अथवा स्वाथ हेतुरूप नहीं होता है परन्तु समक्ष मनुष्यके दुःखके बड़े प्रमाणको पहुँचनेके लिये उसकी यत्किंचित् सामग्री अशक्त होती है। मनोरथ और यथार्थ भाव दयाके बीचमें जो भेद है वह इससे कुछ स्पष्ट हो जायगा । संक्षेपमें जब मनोरथ चिंतन करके ही बैठ रहता है तब भाव दया कृति करने पर्यन्तके हृदयवेगको विस्तारित कर सकती है। मनोरथका भूल क्षणिक आवेशमें होता है, तव भावदयाका बीज स्वार्थ त्यागमें होता है। मनोरथ यह नाश होनेका निमित्तिमनस्तरंग है, तब भावदयाका वेग कृति होनेसे होता है और यह नियत दशामें ही गति करता है और इष्ट हेतुका साधक होता है।
एक दिन प्रमु विहार करते २ किसी नगरके समीप वनमें आये और वहां देव वाणी और मनके योगका निरोध करके आत्मसमाधिमें स्थिरतासे खड़े थे। उस रास्ते होकर अपने वैलोंको हॉकता हुआ एक गढ़रिया निकला। जब वह प्रभुके नजदीक आया