Book Title: Mahavira Jivan Vistar
Author(s): Tarachand Dosi
Publisher: Hindi Vijay Granthmala Sirohi

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Page 103
________________ [८१] प्रसङ्गसे जरा भी अपने समभाववृतसे नहीं डीगे । वे इस बातको अच्छी तरहसे जानते थे कि इस विश्वमें एक स्फुरण जितना कार्य भी पूर्वमें रचित कारण विना नहीं प्रगट होता है । गहरीयेने उन्हें जो उग्र कष्ठ दिया उसके कारण भी स्वयम् आप ही थे । वह कारण उस समब गढरिय द्वारा फलरूप हुआ था इस बातसे प्रभु अज्ञात न थे। वासुदेवके भवमें प्रभुने अपने सेवकके कानमें शीशा उलवाते समय जिस मनोभावका सेवन करके भयङ्कर वेदनीय कर्म उपार्जन किया था उस मनोभावके अन्तर्गत मुख्यत्वदो तत्त्व थे (१) खुदकी उपमोग सामग्रीको अन्यके उपभोगके लिये उपयोग होता देखकर प्रगट हुई ममत्त्व भावना (२) अलवता उस शय्यापालकको दूसरेके हक्क पर आक्रमणन करनाथाऔर उसके दंडरूपमें उस आक्रमणके स्वरूपके विस्तार परलक्षरखे विनाक्षणिक आवेगके वश होकर, मदांधतासे किसीको मरजी मुजब शिक्षा करनेकी भावना और खुदके लिये अभिमानसे यह खयाल करना कि हमें कोई पूछनेवाला नहीं है। खुदकी उपभोग सामग्रीका सुखा स्वाद अन्यद्वारा होता देखकर उसका बदला लेनेके लिये जो वृत्ति उद्भवित होती है, उसकी तीव्रता, गाढ़ता, और स्थायित्वका नियामक उस उपभोग सामग्रीमें रहा हुआ ही स्वका ममत्त्व है। मेरे पुण्य बलसे जो कुछ मुझे मिला है उसका भोक्ता मेरे सिवाय अन्य कोई नहीं होना चाहिये, यदि नजर बचाकर कोई उसका लाभ लेले, कोई उसका अयोग्य तौर पर उपयोग करले, अथवा वह योग्य सामग्री मेरे पाससे छीन ले, तो उसका मरजी

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