Book Title: Mahavira Jivan Vistar
Author(s): Tarachand Dosi
Publisher: Hindi Vijay Granthmala Sirohi

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Page 104
________________ [८२] मुजन सहला सुझसे जितना होसके उतने ही आवेगसे में लू, और न हया सदा स्वाभाविक वेग ऐसा ही होता है । परन्तु यदिप्य सरलता पूर्वक निर्मल बुद्धिसे विचार करके देखे तोउसको मालूम होगा कि जिस दस्तुको वह अपने पुण्य बलसे उपस्थित हुई गलल है और जिसको मात्र स्वके उपभोगके साधनकी कल्पना करता है, उस वस्तुका सुखदायीत्व बहुत आंगतुक कारणो पर आधार रखता है अर्थात् उस वस्तुकी भोग प्रदाग शक्ति, भोक्ता जिसको उस उपभोगसे अलग रखना चाहता है वह उनके उपर ही बहुत अवलम्बित रहती है। वस्तुका सुलायीत्वजिल बंशोके समुच्चयसे उद्भक्ति होता है, उन संशोका तिरन्कार ही मुर्खाइसे भरा हुआ कार्य है और इधर उधरका समाज हमाइन अधिक विषयोंके सुखदायी स्थितिका मुख्य अंग है। समाज और हमारे लुखका अवयव-सम्बन्ध है-अर्थात् जन समाज यह हमारे सुखका मुख्य घटक अथवा अंश constitnent है। हमारे उपभोग सानग्रीके मूल्यका कितने अंशमें समाजपर आधार है उसका किंचित विवरण इस स्थानपर नहीं गिना जायगा। मनुप्यके हृदयका गुप्त अवलोकन करनेसे मालूम होता है कि सुन्दर और सुखद वस्तुका उपभोग करनेसे ही उसकी परितृप्ति नहीं होती है। परन्तु उसके साथ हमारे सुखानुभवका बाहिरी जगत्को भी ज्ञान है उसका भान और उसके भोक्ता होनेमें ही आपोआप सुख है। सुन्दर वस्त्रालंकार पहिननेमें जो सुख समाया हुआ है उसका प्रथक्करण करनेसे मालूम होता है कि उस सुखका जरा भी अंश उस वस्त्रालंकारमें स्वतः नहीं रहा होगा। उसमें स्पर्श सुखका भी

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