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[.७४.] पोष होता है इससे उसकी कृति उसके करनेवालेका तया जिसके सम्बन्धमें जो किया जाता है उसका भी हित नहीं कर सकती। कभी समक्ष मनुष्यके सत्कर्मका उदय नजदीक हो और उसके निमित्त ही वह कृति उससे फलती हो, परन्तु यदि हम ऐसा कहें. . कि हमें मिलनेके फलके आधारसे ही समक्ष मनुष्यकी कृति सफल हुई है अथवा निष्फल गई है, परन्तु असलमें यह यों नहीं है परन्तु वह कुछ अंशमें हमारे स्वार्थ त्यागके परिणामरूपमेंसे ' उद्भवित होती है। दरअसल वही सफल होजाती है। संक्षेपमें मनुव्य दुसरेका परोपकार करनेसे अपना ही परोपकार करता है। इसका दूसरोंके सुखरूप होना अथवा न होना यह स्वके कर्मपर निर्भर है। आत्माके विकाशके अर्थ त्याग़ बहुत ही आवश्यक है इसलिये. शास्त्रकार दान आदिकी बहुत महिमा करते हैं। दान यह कुछ महत्वकी वस्तु नहीं है परन्तु दान देनेके पहिले कृपणता और संकीर्णताका. लोप ही महत्वकी वस्तु है। इस लोपको साधे विना अन्य क्षुद्ररूप हेतुसे जो क्रिया प्रकट होती है, वह दान करनेवालेको उलटी हानि करती है कारण कि क्रियासे उसकी कीर्ति लोम आदि नीच वासनाएं पोषण पाती हैं और बलवान होती जाती हैं और ऐसा होनेसे ही महावीर प्रमु जैसे परम पुरुषको मोनन देनेवाले नगरसेउको जो फल मिला था वह मात्र नहींवत् ही था और जिनदत्त जो कुछ भी नहीं देसका था उसने अपनी उत्कृष्ट भावनासे उत्कृष्ट फलको प्राप्त किया था। - (२) कर्तव्यके लिये जो फल ज़रूरी है उस प्रयत्न विदून खाली मनोरथ भी उतना ही फल हीन है। कितनी ही महान् पर