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[७२] उत्तरतिर अधिक तद्रूप होते जाते थे । यदि थोड़ी देरतक उसने दूसरे स्थानसे प्रमुके भोजन करनेका हाल नहीं सुना होता और . चित्तका-विक्षेप नहीं किया होता तो थोड़ी ही देरमें जिनदत्त परमपदको प्राप्त हो जाता। जिसको संग्रह करनेके लिये प्रमु वाँसे लगे हुए हैं ! परन्तु थोड़ी ही देरमें उसने अपनी परिणाम धाराकीं आशा निष्फल देखी । अतएव इस पदको वह तत्काल प्राप्त नहीं कर सका, खाली श्रेष्ठ देवलोककी गतिको ही उपार्जित करसका ।
. इस प्रसंगमेंसे दो सत्य उद्मवित होते हैं (१) भावना हीन क्रियाका फल बहुत कम होता है । (२) कर्त्तव्यके लिये पुरुषार्थ बिदून अकेला निर्बल मनोरथ भी उतना ही निर्बल है। हमें कुछ विस्तारसे इस मर्मको स्पष्ट करना उचित है।
' (१) वंधका निर्णायक हेतु परिणाम अथवा भावना है, कर्म नहीं । हम अकेले कर्मसे स्व अथवा परका भला नहीं कर सकते। हम कितना ही अधिक प्रयत्न दुःखको टालनेके लिये क्यों न करें परन्तु इससे हम किसीका स्वल्प दुःख नहीं टाल सकते हैं अतएव हरएकको यह बात सदा स्मरणमें रखनी चाहिये । जिन लोगोंका यह मानना है कि विश्वके प्रति कुछ भी परोपकार करनेमें हम विश्वका कल्याण कर लेते हैं वे अपने आप ही ठगे जाते हैं इतना . ही नहीं परन्तु परको हित करनेका अमिमानवालीभावनासे वे उलटे अपने आपको बंधन में डालते हैं दुनियां अपने जैसे क्षुद्र मनुष्योंके परोपकारकी राह नहीं देखती है और जो हम ऐसी अहंकारतामें फूल जाते हैं, इससे पूरे पूरा हमें ही नुक्सान है । साफ तौरपर देखनेसे यह ष्टिगोचर होगा कि मनुष्यके परोपकार करनेका प्रयत्नही दूसरेके
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