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[..] शुष्क शरीरवाले प्रमुको मिक्षाके अर्थी देखे अतएव अपनी सेवकिनसे कहा कि इसको कुछ लाकर दे दे ताकि यह यहाँसे शीघ्र चला . जाय । दासीने शेठकी आज्ञानुसार भिखारीके योग्य जैसा तैसा अन्न वोहरा दिया उसको लेकर प्रमु चल दिये । सर्व तरहके अन्न प्रति वे समानता ही रखते थे, परन्तु दूसरी ओर जब यह बात : भाविक जिनदत्त सेठको मालूम हुई कि प्रमुने इस अभिमानीके.. यहाँसे भोजन ग्रहण किया है अतएव अब वे मेरे यहाँ नहीं आनेवाले हैं। इसपरसे उसको अपने मंद भाग्य पर विशेष तिरस्कार मालूम हुआ । वह प्रमुके स्वरूपका चिंतन कर रहा था और अपने मागकी प्रतीक्षा करता था। इतना ही नहीं परन्तु वह अत्यन्त भक्ति परायण और एकाग्र चित्तसे प्रभुको भोजन करानेके द्वारा अपने जीवनको साफल्य करना चाहता था। प्रभुने तो वहासे अन्यत्र विहार भी कर लिया। जिनदत्तकी मनोभावना अफल गई इससे उसका हृदय क्लेशकी अग्निसे विदग्ध रहा करता था। प्रमु जिस परम पदको प्राप्त करनेकी गतिमें हैं उस गतिमें भी अपने अन्न द्वारा यत्किंचित् सहायता देकर उस पद प्रति मेरी परायणता तो कमसे कम व्यक्त करूं और इसी प्रगाढ़ मनोरथसे उसका मन उल्लसित हुआ था परन्तु जब उसको मालूम हुआ कि उसकी भावना सिफ चिन्तात्मक रह गई है और उस संकीर्ण मर्यादाका उल्लंघन कर क्रियात्मक नहीं होने पाई तब उसने विचार किया कि प्रयत्नकी कमीसे ही ऐसा होनेपाया है। जिनदत्त इसतरह विचार करने लगा कि जो मात्र भावपर्यवसायी ही रहता है उसकी कीमत: कुछ नहीं परन्तु जन कार्य पर्यवसायी होता है तन
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