Book Title: Mahavira Jivan Vistar
Author(s): Tarachand Dosi
Publisher: Hindi Vijay Granthmala Sirohi

View full book text
Previous | Next

Page 88
________________ परिवेष्टित स्थितिमें वह बहुत सरलतासे ठगा जाता है। इन्द्रिय सुखोंके सुभीतेमें एक और प्रबल आकर्षक शक्ति है कि दुःखके प्रप्तो अधिक मनुष्यका हृदय उसमें फस जाता है। दुःखं मनुभयंको मजबूत और टट्टार रख सकता है परन्तु सुख उसको निर्बल और नालायक कर देता है । प्रतिकूल सयोगमें जो अपनी टेक और प्रतिज्ञाको सम्हाल कर रखते हैं वे अनुकूल प्रयोगोंमें अंति शीघ्र ही अस्थिर मनवाले होजाते हैं और व्रत भ्रष्ट होनाते हैं इसके बाहरण मौजूद हैं । दुःखके संयोंगोंमें एक ही कर्तव्यके लिंग अनुकूल स्थिति है इससे प्रतिकूल उपसर्गसे अपने उद्देशमें निप्पल संगमने अब अनुकूल उपसर्ग रचने सुरू किये। उसको संम्पूर्ण विश्वास था कि विषयके स्वरूपकी मोहकं मिताके सामने मनुण्य प्राणीकी शक्ति नहीं कि आखिरमें वह जालमें आये विना न हं संक। अढाई वर्ष पहिले भी स्पर्श इन्द्रियके विषयग आकर्षण जनहृदयपर जितना आज प्रबल है उतना ही प्रबल था। संगम यह जानता था कि,चाहे कैसा ही मनुष्य क्यों न हो वह विषय सुखका गुलाम हो जाता है और सब विकट प्रसङ्गोंमें निश्चल और अड़ग वीर नर भी इन्द्रियके विलासका रस चूसने लग जाता है। आत्मा अनादिकालसे इन्द्रियके विकारमें कुछ ऐसा विलक्षण माधुर्य अनुभव करता है कि एक दफा उसकी मर्यादाके अंदर आने पश्चात् उससे छूटनेका संभव अधिक "अधिक न्यून होता जाता है। एक' दफा असं विचारमें मन 'चिपक जाता है फिर उसमेंसे उसके लिये उड़ना मुश्किल होजाता है इसलिये प्रमुकें सच्चे मक सदा दुःखी अवस्थाको ही पसंद करते

Loading...

Page Navigation
1 ... 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117