________________
" [२] शाला नहीं उतरता है। खदने अपने मन जित सुखका मार्ग शाशनिकाला है लरको आचारमें रखे विना और उनका अनुमवगत : लाभ लिये बिना दूसरोंको अपना निश्चय टसानी मुखेनाका दर्द इस
संहाको साधारण को चुका है। इधर उधरसे एकदो गाते इट्टी करके वे शीत पर बहतर इस भातको प्रकट करते हैं कि सूर्यो ! मैंने जोसमामा माहारे लिये शोध निकाला है तुम क्यों नहीं स्वीकार ? परन्तु जब संमार उनकी मात्राह नहीं करता है ये रास्ने आकर कहते हैं कि पंचम आरा माव भनने शुभ हो गये हैं। यदि ऐसा न हो तो अमृत पशा हमारा उपदेश. लोगोंके अंदर क्यों असर करे। परन्तु उनको मह रहार नहीं होती हैन हातले हदयपर भावि पंचम कालके को पट है और अ. नहीं हैं परन्त खुदके हृदयांधकारकी. प्रतिलाया है। जो उपोश हित धनं प्रति लोगोंको देते हैं वह कि स्थलिये उन कितना गहा है। वे अपने अंदरकी कम मारीयोंको नहीं देखते हैं। खुदके संतर शुद्धि और भावनासीत्रकी पूर्णताके प्रमाणमें जन्तु उनके परमहितके मार्गमें आ सकता है इस सिद्धान्तं विस्मरणपूर्वक उनका. सब उद्योग होनेसे उनको पंचमकालका प्रभाव प्रतिक्षणमें धनी सूत होता. हुआ मालूम होता है। - यदि ऐसा करोगे तो ही. तुम्हारा कल्याण होला और यदि ऐसा वर्तन रखोगे तो तुम्हारा उदय होगा। आजकल छाती ठोकर बोलनेवाले उपदेशकोकी संख्या पहिलेसे अधिक है. तो मी बहुत थोड़े मनुष्योंका ही क्यों ल्याण होता है इसका जब विचार करते हैं तो मालूम होता है कि इसतरह कल्याणका उपदेश कर