________________
[६.] भावना ना भी प्रकट नहीं हुई थी। कारण कि प्रभु तो उस बालभूमिको बहुत कालसें उल्लंघ चुके थे। परन्तु हमारे भावी अनुयायी दीक्षित काको चाहिये कि प्रमुके दृष्टान्तका अनुकरण करके जहाँ उनको सन्मान मिझे और परिचित संयोगोंकी प्राप्ति हो वहाँ ही न पड़ा रहे परन्तु सर्वत्र अत्र तत्र विहार करे। दीक्षितोंकी विचरण क्रिया सम्बन्धी एक सवल उदाहरण पूरा करनेके लिये वे आर्य
और सभ्य समानके निवास हदको उलंबकर जहाँ अधम और निकृष्ट प्रकृतिके लोग असते थे वहाँ गये । संसारका सम्बन्ध छोड़े पश्चात् मोहक प्रवल निमित्तें में वसनेसे तो यही अच्छा है कि संसार त्यागका बाहिरी प्रवेश धारण करके स्त्र और पर आत्माको प्रवत्रनामें नहीं डालना ही अधिक अच्छा है। जगत्की प्रशंसा ही एक प्रबल वेगवाला प्रवाह है कि उसके पुरमें आये वाद बुद्धिमान भी अपनी मची अवस्थाका मान भूल जाते हैं। यदि हमारे अंदर गुणोंकी कमी हो तो बाहिरी वेपसे, अनुरंजित समान उनको हमारे ऊपर आरोपित करता है और वह मुग्ध मनुष्य बहुत करके उस आरोपकी चमकसे अंधा होजाता है
और उसको अपने अदर स्वीकार कर लेता है इससे जगत्के अंदर एक महान् प्रतारणाका तत्त्व दाखिल होचुका है । आफतसें रक्षण करना यह एक सुकर और सुखसाध्य विषय है परन्तु प्रशंसासे बचना यह अत्यन्त दुष्कर और विषम है। अभिमानके दाखिल होनेके द्वार आत्माके हरएक प्रदेशमें होते हैं और जब यह
आत्मामें भर जाता है. तब आत्माके अंदर वायु भर जानेसे जैसी . . आत्माकी.स्थिति होती है ठीक उसीके सदृश संधिवा आत्मा
है तब आत्माराम होते हैं और दाखिल
आत्माकी