________________
[११] जिस वयसे यह चारित्र गठित किया था उस वयमें पामुरसे पामर मनुष्यको भी इन्द्रिय विलासका स्वाद मधुर लगता है। उसी क्यों उन्होंने संसार-त्यागका भीषण व्रत अंगीकार किया था इससे उनके कीर्तिकी सुवास वसंत अनिलके सदृश यह दिशामें विस्तारित हो गई थी। उस समयतक प्रमु निन२ स्थानों में विवारे थे वहाँ पर उनका योग्य सन्मान और आदर हुआ था। हमारे जैन ग्रन्थकार बताते हैं कि इसपरसे प्रमुने यह विचार किया कि अभी मुझे बहुत कौकी निर्जरा करना बाकी है और निर्दयी लोगों द्वारा शरीर कष्टका अनुभव किये बिना उन कमौकी निर्जरा नहीं होगी। अतएव उन्होंने अनार्य भूमिमें विचरनेका निश्चय किया। प्रमुके चित्तमें उस समय क्या भाव होगा उसको कोई नहीं जान सकता। परन्तु इतना तो निश्चित है कि उनके आदरभून इन प्रसङ्गोमेंसे हमारे लिये एक उत्तम शिक्षण उपलब्ध होता है। उस समय प्रमुकी आत्मअवस्था तो ऐसी थी कि अत्र तत्र और सर्वत्र उनका चित समाधानमय ही था। उनकी तमाम चर्या उदयाधीन और आत्म प्रतिबंध रहित थी। आर्य अथवा अनार्य उमय क्षेत्रों में उनका मन एकसा था। उन पर कोई पुष्पको चढ़ावे अथवा कोई अपमान अथवा कीचड़ फेंके तो भी उनका उभय आचरण जरा भी न्यून्याधिक नहीं था
और न होनेवाला था तो भी प्रमु अपने परिचित प्रदेशको छोड़कर अज्ञात स्थानोंमें गति करनेको उद्युक्त हुए थे यह मात्र जगतको दृष्टान्तमय होनेके लिये ही था। खुदने जो आठ वर्षकी दीक्षित अवस्थामें लोक सन्मान प्राप्त किया था इससे सामान्य अन्तःकरण सुलम अभिमानकी भावनामें पड़ जाता है परन्तु उनके हृदयमें उक्त