________________
.[१३] भाव ही रखा और कर्मकी उदयमान गति प्रति उन्होंने अपने द्वेपका प्रत्याघात न किया, अखीरतक चित, समस्थितिको कायम रखी । यदि वे चाहते तो संगमके प्रसंगसे क्रोधायमान होते, इतनाही नहीं परन्तु संगमको उसकी निर्दयताका वदला दिया होता परन्तु यहा ही प्रमुको प्रकृतिके महा नियमके सामने संगमसे बड़ी बलवान सत्ता रोकनी पडती। जहाँतक ऐना अवसर नहीं प्राप्त होता वहाँतक प्रमुको उसका बदला लेनेके लिये संसारमें रहना पड़ता। उसके साथR कुदरतके यह नियमकी गतिमेंसे छुटनेके प्रयत्नमें से अन्तर्गत चित्तकी स्थिति रागद्वेष युक्त उपस्थितिसे ही उसका आत्मसामर्थ्य भी घट जाता और इससे अपनी प्राप्त विशुद्धिको एकदम खो बैठते । ज्ञानी जन इस वातको अच्छीतरहसे देखते हैं कि लाभ किसमें है ? संगमके परीपहस वचनेमें जो उन्होंने लाम देखा होता तो ऐसा कहना उनके लिये बड़ा सुलभ था परन्तु आखीर में ऐसा करनेसे उनको कितना गैरलाम होता। इसके बारेमें हम ऊपर पढ़ आये हैं। प्रभुका प्रभुत्व संगमके उपसर्ग समभावसे सहने में ही समाया था। जिप्त समय संगमद्वारा प्रमुपर भिषग कष्टकी वर्षा हो रही थी उस समय. इन्द्र भी इस कष्टसे. अज्ञातः न था और यदि उसने चाहा होता तो संगमके कष्टसे प्रभुको बचाये होते । परन्तु ऐसा नियम है कि उच्च श्रेणिगत आत्माकी इच्छाका सारा विम्ब अनुकरण करने लगता है। प्रमुकी इच्छासे इन्द्रकी इच्छाका विरोध नहीं हो सकता था यह सब कुछ इन्द्र देखता था. और भक्तिके बाहुल्यसे उसका हृदय अत्यन्त दु:खी था.। परन्तु कर्मकी गतिको उसके एक तम् परसे भी हटानेको