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[.५१] पैदा होजाता है । इससे वह मनुष्य आगे गति करनेसे रुक, जाता है। इधर उधरके मनुष्योंके स्तुतिरूप वजनदार माला उसके गलेमें मुश्किलसे निकलती है। आखिरी किस दर्जेको बुराई तक वह आत्मा खिंचा जाता है उसको हम यहाँ निश्चित नहीं कर सकते। इस समय मुख्य करके इस तात्विक मर्मका लोप हुआ मालूम होता है। आक्षेप करनेका हेतु नहीं है और ऐसा करनेका हमारा अधिकार भी नहीं है । परन्तु इतना तो कहना अनुचित नहीं होगा कि प्रभुका अनार्य भूमिमें विचरण मात्र परिचित क्षेत्रमें विचरते हुए मुनियोंके सार ग्रहण करने योग्य है। अनार्यमें जाना ही लोग उपसर्ग क्षेत्रमें प्रमुका जाना मानते हैं परन्तु ये असलमें भी नहीं है परन्तु वे सन्मान, स्तुति और सत्कार अनुकूल उपसगौसे वचनेके लिये गये थे । स्वके प्रति उद्भवित प्रतिकूल आचरण यह मात्र उपसर्ग नहीं परन्तु जिसके परिणामसे आत्मा शरीरमें. गहरा उतर जाय वही सच्चा उपसर्ग है और बारहृदयके लिये स्तुतिजन्य अभिमानसे अनिष्ट कुछ नहीं है। ये बात अपशयमें प्रमुके हृदयमें होनी चाहिये नहीं तो उन्हें अपने वर्तनसे नगतको कौनसा बोध पूरा करना इष्ट होता ? तीर्थङ्करके . जीवका 'एक बनाव भी निहतुक नहीं होता उसके एक सूक्ष्मसे सूक्ष्म व्यतिकरमें भी कुछ गहरा मर्म होता है और पुत्रके आर्य क्षेत्रमें विहाररूपी वर्तनसे ऊपर . वताई हुई सिद्धियों सिवाय अन्य, कुछ भी बोधक ध्वनि नहीं निकलती है और इसी बोधामृतको पान करनेका आशय ही होगा और हमें इसको स्वीकारना ही पड़ेगा। परिचित और श्रोतृवर्गके संकीर्ण प्रदेशको सीमाके
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