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भक्तिभावसे पुलकित हो गया। उसने पृथ्वी पर अपना सिर लगाकर प्रमुकी चक्रस्तवसे मनोमय स्तुति की क्षपाभरमें उसके वैभवका अभिमान जाता रहा । उसको अपने दुःखी पर्यवासी वर्तमान सुखकी क्षणिकता खिंचनं लगी। प्रमु उन्नतिकी अखिरी भूमिकाकी ओर आते थे यह देखकर उसका हृदय हर्ष और अनुरागसे गद्गदित हो गया । भक्तिमें नियमसे दो तत्व होते हैं- एक स्व की प्राप्त स्थितिमें अपूर्णता होकर पार हो चुके हैं उसकी सम्यग तोरपर पहिचान । भक्त हमेशा भक्ति करते समय अपनी लघुताको स्वीकार करता है । स्यूल दृष्टि से देखते कहाँ प्रभुका जर्नरित शुष्क रसहीन शरीर और कहाँ इन्द्र देवका पुण्य प्रतिमाके प्रभावसे सारे विश्वको मोहित करनेवाला देवी शरीर ! कहाँ प्रभुकी निर्ग्रन्थ निष्किचन अवस्था और कहाँ इन्द्रका अवधि रहित स्वर्गीय वैभव ? चीटी जैसा क्षुद्र जंतु मी जिस निर्भयतासे रुधिरको चूस सकता है ऐसी कहाँ वीर प्रमुकी नम्रता सौम्यता और दीनता ? करोड़ों देवोंके परिवारसे परिवृत भोगकी मूर्तिरूप इन्द्र कहाँ ? परन्तु आत्मदृष्टिसे प्रमुका अधिकार इन्द्रके अधिकारसे अनंतगुणा श्रेष्ठ था। न्यों प्रकाश और अंधकारका मुकाबला बन नहीं सकता त्यों इन दोनोंके अधिकारकी भी तुलना नहीं हो सकती कारण कि उभयका स्वभाव गुण और धर्म ये सत्र भिन्न हैं । इन्द्रको इस अलौकिक दृष्टिका स्वरूप लक्ष्यगत था कारण कि उसके स्थूलताके पड़ स्थूल ज्ञानके प्रभावसे निकल चुके थे।
इंन्द्रने समाके वीचमें ही जो प्रमुके ध्यानकी, निश्चलताकी, तथा प्रतिबंधताकी स्तुति की तव देवोंको बहुत आश्चर्य हुआ? और