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[१४] लास अभी मौजूद है जव कि बुद्ध जैसे एक समयमें (अशोकके . कालमें) समस्त हिन्दों पर धर्म चक्रको विस्तारित करनेवाले दर्शनको आज हिंदमें खड़े रहनेका स्थान नहीं है तब जैन अपने धर्मकी भावनाकी गहराइके वलसे अनेक विरोध और विकट प्रसङ्गों के बीचमें अभी तक दृढ़तासे अपने पैरोंको जमा कर खड़ा है इसका कारण मात्र प्रमुके उपदेश शैलीका ही था उनकी वाणीके अतिशयके सम्बन्धमें जो कुछ शास्त्र कहते हैं वह उनकी उपदेश शैलीका प्रभाव दर्शानेका मात्र प्रयत्न है।
एक समय प्रमु अपनी चरणान्याससे पृथ्वीको पावन करते २: राजग्रहीमें आये। वहाँ उन्हे गोशाला नामक एक मनुष्य शिप्य होनेकी ईच्छासे मिला। उस समय तक प्रभु किसीको शिष्यका करना नहीं स्वीकार करते थे। जहाँ तक मनुष्य अपना सर्वोत्कृष्ट कल्याण नहीं साधसकताहै तब तक वह दूसरेका दारिद्र नहीं हर सकता है। प्रमुग्नवातोंको सम्यग् तौरपर जानते थे अतएव उन्होंने गोशालाकी प्रार्थना स्वीकार नहीं किया तो भी वह प्रमुके सहबासकोनहींछोड़ता था। वह अपने आप महावीरमें गुरु बुद्धिको स्थापित कर भीक्षाद्विारा प्राणवृत्ति करता था। उस सत्यकी कुछ जीज्ञासा थी। वह आत्मशक्तिके विकाशके लिये योग्य पुरुषार्थ करनेको तत्पर था तो भी जिस समय प्रमुउपदेशके कार्यसे विमुख थे उस समय गोशाला महावीर प्रमुके पास अपने आप आया था और उसने जो वोध प्रमुसे अपने मनो कल्पनाद्वारा धर्म रह चुका है। स्वामी दयानंद जो कि हरएक धर्मका कट्टर द्वेषी था उसने भी एक जगह लिखा है कि एक पह समय था जवजन धर्मके माननेवालोंकी संख्या ४० करोड़ थी। .:. ... ... अनुवादक । ।,