Book Title: Mahavira Jivan Vistar
Author(s): Tarachand Dosi
Publisher: Hindi Vijay Granthmala Sirohi

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Page 64
________________ [१] महावीर प्रसुने इस बातका बिलकुल भी फिक्र नहीं किया कि मेरा समुदाय दूसरे संप्रदायके मुकाबले में संख्या में पीछे रह जायगा । इन्होने सिरफ अपने सम्बन्धमें भानवाले मनुण्योंको अत्यन्त सरल, प्रेमभाव और मिष्टं वाणी द्वारा उनके अधिकार अनुचार घटित उपदेश दिया। महावीर प्रमुळे अनुवाओंकी संख्या गोशाला जैसे एक सामान्य प्रवर्तक - अनुयाइयोंकी संख्यासे कम थी। इसपरसे यह ज्ञात होता है कि प्रभुने अपने अनुयायीओंकी संख्या दरानेकी ओर दूसरोंके बरोक लक्ष नहीं रखा था। यदि उनका ऐसा आशय होता तो ये अपने अलौकिक सामर्थ्य द्वारा अपने अनुयायीभोंकी बडी संख्या खड़ीकर सकते थे। परन्तु उनके पारित्रपरसे यह साफ विदित होता है कि उन्होने अपने उपदेश रूपी नलके बढेको उठाकर घरोप रजाकर उसे संसारको पानेको उद्योग नहीं किया प्रमुका यह एक अनुभवं गत सिद्धान्त था कि दुनियाके हृदयमें अपने उपदेशको जवहस्ती ठसाने से उप्तका वास्तविक हित नहीं हो सकता। कमी. क्षणभर उपदेशके दीव्य प्रमावसे अथवा प्रतिभासे पंधे होकर मनुष्य उनका अनुसरण करे परन्तु इससे उनका स्थायी कल्याण नहीं हो सकता इसलिये निस तरहमात्र लोकं समहमें सत्य प्रति रुवि उत्पन हो और उनके हृदयमें इष्ट उपदेश परोक्षमें उन्हे खनरनिदन अर्थात् उनके हृदयमें परिणमन हो जाय उसी शैली द्वारा प्रसुने काम लिया था । न संख्या अथवा सुमहपर पमुने कमी जोर दिया और नं उसमें उन्होंने जनहितका जरा भी संकेत माना । वे यह मच्छी तरहसे जानते थे कि संख्या यह कृत्रिम तौरपर.नमें हुए एक

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