Book Title: Mahavira Jivan Vistar
Author(s): Tarachand Dosi
Publisher: Hindi Vijay Granthmala Sirohi

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Page 59
________________ [३७] इस परसे किसी पर आक्षेप करनेका आपय नहीं रखा है मात्र मनुष्यके हृदय गुप्त और निगूढ़तासे घर करके बैठी हुई एक त्याग करने योग्य निर्बलताको प्रकाशमें लानेका प्रयत्न किया है। प्रमुको कैवल्य प्राप्त हुए पश्चात् उन्होंने जिस श्रेणीसे 'उपदेशं प्रवृत्ति शुरू की थी उसमें से भी अनेक शिक्षणीय अंश न ण करने योग्य हैं न तो उन्होंने वर्तमान उपदेशकोंके नाई दूसरेके छिद्र शोधनेका उद्योग किया था और न दुमरोंके धार्मिक वर्तन अथवा आचार विचार पर चोधारी खड्ग फिरानेका उद्योग किया था। विश्वका सर्वोत्कृष्ट कल्याण करनेके अर्थ ही उनके तीर्थंकर पद का निर्माण हुआ था तो भी उन्होंने निर्माणको सिद्ध करनेके लिये किसीको उपदेश पराने अथवा समक्ष मनुष्यकी अनिच्छापर देनेका प्रयत्न नहीं किया तथा उनके आचार विचारको बीचमें ही छुड़ाकर अपने वाड़ेमें आनेको लोगोंको नहीं ललचाये। उनकी *उपदेश पद्धति शान्त, रुचिकर, दुश्मनको भी हृदयस्पर्शी और मर्मग्राही थी तथा उसका आशय श्रोतृ वर्गके हृदयमें शीघ्र असर कर लेता था इतनाही नहीं परन्तु वह बिल्कुल सरल थी। प्रमुकी यह इच्छा नहीं थी कि संसार मेरे अभिप्रायके बरावर ही वर्तन करे और मेरे आशयके ही अनुसार चले कारण कि वे इस बातको अच्छी तरह जानते थे कि ___ * भगवानकी देशना प्राणी मात्रके लिये इतनी सरल और हृदय स्पर्धा थी कि उसको मनुष्यसे लगाकर पशु पक्षी भादि जितने जीप इस विश्वमें जन्म लेते हैं वे अपनी २ भाषाओं में समझ लेते थे भगवान शहर, जंगलं, और पहाड़ आदि अनेक स्थानों में संसारके अकल प्राणियोंके हितार्थ उपदेश किया करते थे।रत्रकार कहते हैं कि उनको पनि उनके उपदेशको सुननेके लिये तियेच भी आते थे। . . . . .. .. . . .

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