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[९] हैं। सामान्य कोटिके मनुष्योंको अपनी शुम भावनाके तदानुसार चारित्रके भोगसे समाज अथवा अपने सम्बन्धियोंकी अज्ञानजन्य भावनाओंको वीर प्रमुकी भांति तृप्ति देना योग्य नहीं है। क्योंकि इसका अनुकरण मनुष्यजगत्की अज्ञानताको जो पहिलेसे ही अधिक प्रमाणमें है महायता एवम् वृद्धि मिलती है और अपनी शुभ भावनाओंको इस प्रकार भटकती हुई छोड़ देनेसे व हमारे विपरीत वर्तनके कारण शुमके प्रमाणमें अशुभ एवम् निकृष्ट बन जाती है। वीरप्रमुने जो अपने बड़े भाईकी मोहजन्य याननाको स्वीकारा, वह उनके तीर्थक्कर नाम कर्मके सर्वथा अनुभूत और योग्य था। परन्तु तीर्थङ्कर सिवाय अन्य आत्माओंके लिये ऐसा वर्तन । योग्य नहीं गिना जाता । एक अज्ञानजन्य याचनाका स्वीकार ही ऐसी अनेक याचनाओंको हमारे पीछे २ खिंच लाता है, और आखिरमें ऐमा अवसर आन पहुंचता है कि आत्मा पहिलेकी विशुद्धिको खो बैठता है । अनन्तकालसे रागके पाशमें बंधा हुआ यह भोगी आत्मा अपने पुराने साथियों में फिरसे रचलेने लग जाता है और कालान्तरमें अपने सद्गुणोंसे भृष्ट होकर भोग ही का क्रीड़ा बन जीवन निर्गमन करता है।
बड़े भाईकी प्रार्थनाको मान देकर वीरप्रमु और दो वर्ष तक गृहस्स्यावासमें रहे । स्वयम् ज्ञानकी उच्च कलामें विराजमान थे और किसी भी प्रकारसे भ्रष्ट होनेकी संभावना नहीं थी तो भी अन्य जीवोंको दृष्टान्तमय होनेके लिये प्रमु उत्कृष्ट गृहस्थीके आचारोंका पालन करते थे । कायोत्सर्ग ब्रह्मचर्य, परशीलन, विशुद्धध्यानकी तत्परता केवल प्राण निर्वहनार्थ प्रासुक अन्नका आहार आदि आ