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21 वे जानते थे कि सुख दुःख जिसके द्वारा उत्पन्न होता है वह मात्र कुदरती नियम साधन (agency) है उनके प्रति उद्भवित प्रत्येक भाव व्यर्थ है। मुर्ख मनुष्य उस २ प्रकारके निमित्त प्रति विविध प्रकारके मनोभावोंका सेवन करते हैं । प्रभुको यह यह सुज्ञात था कि दोनों कोटिके देवखुदके पूर्वके प्रवर्तित कारणोंक फलीभूत होनेमें हथियार रूप थे अतएव इन हथियारों पर राग द्वेष करना व्यर्थ है । जिस साधनद्वारा कर्म फलदात्री सत्ता उस नियमको गतिमें रखती है उसके साधन पर ही अज्ञान मनुष्य राग द्वेष करते हैं । इन दोनों प्रकारके शुभाशुभ साधनको एक साथ गतिमें रखने पर भी प्रभुने अपने निरुद्विपनको नहीं त्यागा था। चित्तकी सम स्थितिको कायम रखनेके लिये भीषण वृतसे वे जरा भी चलित नहीं हुए। जब हम पामर जीव सहन प्रसजसे राग द्वेपका सेवन करते हैं तब महाजन जिसके द्वारा अपने जीवन त्यागका भय उत्पन्न होता है अश्वा जिसके द्वारा स्यूल मृत्युसे मुक्त होसके, ऐसे साधनों पर हर्ष अथवा शोक करके बंधवश नहीं होते हैं। जिस तरह पवन सुवासित और दुर्गधित दोनों तरहके द्रव्योंको अपने साथ लपेट कर अव्याकुलतासे कहता है। उसी तरह महात्मा भी खुदको सुख देनेवाले और दुःख देनेवाले इन दोनों तरहके उदयाधीनमें प्राप्त होनेवाले सत्वोंको, अव्यग्रहतासे साथ लेकर विचरते हैं। ___ दीक्षाके समयसे लेकर कैवल्य प्राप्तिके समय तक अर्थात् बारह वर्ष तक प्रभुने मौन धारण किया था। उनके चारित्रका यह अंश अत्यन्त बोधक है। स्वहित साधने प्रति जिनकी दृष्टि है