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(२८) उन अधिकार और बल उससे नीची कोटिक प्राणियोंको नाश करनेमें न 'लगाते उसका सदुपयोग करना चाहिये ताकि वे हमारे बरोबर अधिकारकी ओर अपने आप आजायें । उनको अच्छे रास्ते पर लगा श्रेष्ठ है परन्तु ऐसा करनेमें जब वे निष्फल होनाते हैं तब वेअपने उच्चतम सामर्थ्यका उपयोग नीच कोटिके जीवोंको मारनेकोलगते हैं। तब वे प्रतिकी माम्यावस्थामें एक तरहका क्षोभउत्पन्न करते हैं। प्रहतिका सामायिक वेग क्षोभको शान्त कर पुनः साम्य स्थापित करनेकी और होता है और ऐसा करनेमें जो बल मकतिको लगाना पड़ता है, वह क्षोभके प्रमाणमें ही होनेसे आत्मा जो क्षोभ उत्पन्न करता है उसके तारल्यानुसार प्रतिको न्यूनाधिक उद्योग करना पड़ता है और आसिरमें प्रतिभा प्रत्याधात उस क्षोभ उत्पन्न करनेवाले आत्मा प्रति होता है। इस क्षोभको शान्त करनेमें प्रकृतिको जो समय लगता है उस समयको हमारे शास्त्र 'कर्मकी सत्तागतावस्था' इस नामसे सम्बोधित करते हैं और जब प्रकति इसको शान्त कर देती है तब उसका प्रत्याधात उस क्षोभ करनेवाले आत्मा प्रति होता है उस समयको हम कर्मका उदय काल कहते हैं। सत्तागत अवस्थामें यदि आत्मा अपने वलके उदयका उपयोग प्रतिके क्षोभको शान्त करनेकी और लगावेतो उस सहायताके प्रमाण उसके प्रति प्रत्याघातका बल न्यून होता है। इसलिये हमारे शास्त्रकार कहते हैं कि जहां तक कर्म सत्तामें होते हैं वहांतक वे शान्त होनेकी पात्रता रखते हैं और उसका निवारण मात्र ही कुदरतकी गतिमें उद्भवित क्षोभको शान्त करनेके लिये परिश्रम करना ही है ताकि उनका निवारण हो जाय । गर्विष्ट