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(२३) इस कार्यको पार किया है वह हमें अत्यन्त माननीय और उसी पद्धतिका आश्रय लेकर हम भी अपने इधर उधरके मनु के छोटे बड़े दोषोंको सुधार सकते हैं। दूसरोंके दोषोंको सुधारनेकी हमारी पद्धति भूलसे भरी हुई है इतना ही कहना काफी नहीं है परन्तु विलकुल ही विपरीत है। सुखकी इच्छासे हम लोग अक्सर समक्ष मनुप्यके दोषोंका प्रमाण बढ़ा सकते हैं और हमारा राग द्वेष हमको संयममें रखनेसे असमर्थ होता है इससे उलटा हम समक्ष मनुष्यका अहित करते हैं। हम अक्सर क्रोधी मनुष्य प्रति अमुक हद तक आये बाद क्रोधको बताते हैं और हमारा यह वर्तन ही समक्ष मनुप्यके दोषोंमें द्विगुणकी वृद्धि करता है। उसके क्रोधके साथ हमारा क्रोध मिलते ही विश्वमें क्रोधका प्रमाण बढ़ जाता है और क्रोधके प्रमाणको बढ़ानेमें हम सहायकहोते हैं। जहां पर पहिले एक मुष्टी धूल उड़ती थी वहां पर हम दूसरी मुष्टी धूलकी उड़ाते हैं। परन्तु वस्तुतः हमें उसके प्रति परम शान्ति
और क्षमाशील रहना चाहिये । कितनी ही विकट कसौटी क्यों न हो परन्तु हमें अपना काबू नहीं खोना चाहिये । यदि ऐसा ही किया जाय तो समक्ष मनुष्यका हित हो सकता है और यदि इसके विपरीत हम वर्तन करें तो हमारा और सामनेवाले मनुष्यका स्वभाव विशेष अनिष्ट हो जाता है। ज्यों अर्धदग्ध वैद्य रोगीको आराम नहीं पहुंचा सकता है परन्तु उससे उलटी हानि होती है त्यों ही असंयमी मानव वैद्य भी हमारे समक्ष दोषोंको सुधारनेके बजाय उलटा प्रादुर्भाव करता है। जो लोग अन्त समय तक क्रोध प्रति शान्तिमयता, अभिमान प्रति दीनता, लोभ प्रति अकिंचनता और