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(१९) सिर्फ भोग लेनेमें ही श्रेय है। आत्माद्वारा जो कारण पूर्व भवम गतिमें रखखे गये हैं उनको यथा योग्य परिणाम देते हुए कोई नहीं रोक सकता है। अवधिज्ञानसे प्रभु अपने पूर्वकालके निकाचित बंधको, उसके स्वरूपको और उसका जिस तरहसे भोगा जाना निर्माण हो चुका है, उसको अच्छी तरहसे जानते थे। अतएव उन्होंने उन कर्मोको दूसरे तौर पर भोगनेका बिल्कुल प्रयत्न नहीं किया।
तो भी ऐसी कल्पना करना उपयुक्त नहीं है कि प्राणी मात्र अपने २ कर्मोको भोगा करे इसमें किसीको दखल नहीं करना चाहिये । यदि ऐसा ही हो तो अनुकम्पा और दयाके मार्गका उच्छेद हो जानेका भय रहता है। सामान्य प्राणी यह नहीं जानते हैं कि अमुक कर्म शिथिल हैं अथवा निकाचित । किसी प्राणीको रोगवश देखकर अथवा उपसर्गसे दुःखी देखकर उसको सहायता देना यह शास्त्रका उत्सर्ग और सबसे श्रेष्ठ मार्ग है। क्योंकि ऐसा करनेसे वह पीडितजीव अनेक आर्त रौद्र ध्यानसे बच जाता है, और इससे अनेक नये कर्म उपार्जन करनेसे रुक जाता है। जो कि इस तरहकी सहायतासे यदि कर्मोकी निवृत्ति होनी हो तो ही वे निवृत्त हो सकते हैं । परन्तु इससे पीड़ित आत्माको शान्ति
और आश्वासनका निमित्त होकर उसके उदयमानकर्मोकी तीव्रताको किसी अंशमें न्यून करनेमें समर्थ हो जाती है। यदि आत्मा किसीकी सहायता विना प्रभुकी नाई समभावमें रहनेको समर्थ हो तो भी दयाके मार्गका लोप न हो जाय इसलिये इस प्रवृत्तिको नित्य कायम रखना ही प्राणी मात्रका कर्तव्य है। जो कि बलवान