Book Title: Mahavira Jivan Vistar
Author(s): Tarachand Dosi
Publisher: Hindi Vijay Granthmala Sirohi

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Page 40
________________ (१८) • ऐसे ज्ञाना महात्मा उदयमान शारीरिक कष्टको यथायोग्य रीतिसे भोग लेनेमें रंच मात्र संकोच नहीं करते। सामान्यतः कर्म दो प्रकारके होते हैं। एक प्रकार ऐसा है कि वह शुभ ध्यानसे मंत्रादि प्रयोगसे अथवा संयम द्वारा भोगा जासकता है परन्तु जो दूसरे ... प्रकारका कर्म है वह निकाचित है। एवम् जिस प्रकारसे वह बांधा गया है उसी प्रकार भोगा भी जाना चाहिये इससे छुटनेके लिये ज्ञानी जन कभी इच्छा नहीं करते । जो कर्म शिथिल हैं वे आत्माके पुरुषार्थ द्वारा छुटाये जा सकते हैं परन्तु जो निकाचिंत हैं उनका भोगनेसे ही छुटकारा हो सकता है। परन्तु प्रतिनियमानुसार दूसरी तरहके निकाचित कर्म भोगने ही पड़ते हैं। अतएव यदि वेदनीयादि कर्म दृढ़तासे उदयमान हो नायें तो भी महापुरुष उनको सदा सहनेको तैयार रहते हैं और . अपनी प्राप्त सिद्धि अथवा दूसरोंकी सहायसे सदा . निरपेक्ष रहते हैं। जिनके अंदर यथार्थ ज्ञानका अभाव है तो भी वे अपने .. आपको ज्ञानी मानते हैं उन्हें भी निकाचित कर्म भोगने ही पड़ते हैं । वीर प्रभुको इन्हे भोगनेकी अनिच्छा उनके उस समयकी ज्ञानमय दशाको देखते होना असंभव था और यही कारण था कि इन्होंने इन्द्रकी प्रार्थनाका स्वीकार नहीं किया था। भक्ति भावसे प्रेरित इन्द्रको प्रभुके शरीर पर अत्यन्त मोह था परन्तु वही शरीर प्रभुके लिये अकिंचितकर था। प्रभु यह अच्छी तरह जानते थे कि कर्मकी फलदात्री सत्ताका निरोध तेरखें गुणस्थानमें वर्तन करनेवाले महायोगीसे भी नहीं बन आता है तो फिरइन्द्रकीसहायता किस गिनतीमें है। आत्माका वास्तविक सामर्थ्य

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