Book Title: Mahavira Jivan Vistar
Author(s): Tarachand Dosi
Publisher: Hindi Vijay Granthmala Sirohi

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Page 42
________________ (२०) त्मिाको एसी सहायता की कुछ भी उपेक्षा नहीं रहती है। कर्म रूपी अरिको जीतनेके लिये प्रभुने जिस अद्भुत चरित्रको बठित किया था वह देश अथवा कालसे निरपेक्ष पनेमें चाहे जिस आत्माको मोक्षपद स्थापित करनेको सम्पूर्ण था। हेमाद्रिकी नाई निश्चल परिणामी, सागरकी नाईगंभीर, सिंहकी नाई निभयऔर मोहरूंपीसस. लासे अजय, कूर्मकी नाई इन्द्रादिको गुप्त रखनेवाले, पक्षीके समान गुप्त विहारी, सब प्रकारके सुख दुःखमें समभावी इस लोक अथवा परलोकमें न्यूनाधिकता नहीं माननेवाले, जल स्थित कमल दलके नाई संसार पंकमें विहरने पर भी निलेप, गजेन्द्रके समान बलशाली होने पर भी मेमनेके माफिक किसीको नहीं नुक्सान पहुंचानेवाले और अस्खलित गतिवाले वीर प्रभु समय २ पर अनंत पूर्वबद्ध कर्मकी निर्जरा करते २ विहार करते थे। एक दफा भगवान श्वेताम्जी नामक नगरकी ओर जाते थे। रास्तेमें क्टेमा ओने प्रभुको सचेत किये कि रास्तेमें दृष्टि विष सर्प रहता है, इसलिये वहा होकर पक्षी भी नहीं उड़ सकते हैं। प्रभुने अपने ज्ञान बलसे देखा तो मालूम हुआ कि वह अत्यन्त क्रोध स्वभावबाला है परन्तु उसमें एक गुण है कि वह सुलभवोधी है। जीवकी किसी भी अनिष्ट प्रकृतिको तीव्र उदयमान देखकर मनुष्य यह ख्याल करता है कि इसका सुधरना असंभव है। परन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं होना चाहिये । जब चित्तका कोई अंश विकत होता है तब उसको योग्य उपाय द्वारा सुधार सकते हैं इतना ही नहीं परन्तु उस अनिष्ट अंशका जितना बल बुराईकी ओर झुका होता है, उतना ही अंश भलाईकी ओर बदल दिया

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