Book Title: Mahavira Jivan Vistar
Author(s): Tarachand Dosi
Publisher: Hindi Vijay Granthmala Sirohi

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Page 36
________________ [१४] ‘पर असर करते हैं । मोहनीय कर्मके शिथिल पड़नाने पर वैदनीय • कर्म लगभग नहींवत् हो जाते हैं। जिस प्रकार विशाल. पटवाली परन्तु निजल सरिता मनुष्यको खींच बाहिर नहीं ले जा सकती उसी प्रकार तीव्रसे तीव्र वेदनीय कर्म प्रकृतिका उदय यदि वह मोहनीय कर्मरूपी. नदीकी वेगवती विपुल धाराओंसे रहित हो तो आत्माको उत्क्रान्ति मार्गसे नीचे गिरानेमें शक्तिहीन है। उपरोक्त विवेचनसे हमारा यह कथन नहीं है कि ज्ञानीजनोंको कष्ट नहीं होता है परन्तु कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि उनका कष्ट उनकी अवशेष मोहनीय कर्म प्रकृतिक प्रभावमें ही होता है। सुख दुःखका मूल मोहनीय कर्म है और जितनी इसकी प्रबलता होती है आत्मा उतना ही सुख दुःख अनुभव करता है । वीर प्रमुको दीक्षा कालमें नोर कष्ट और आपत्तिय सहनी पड़ी हैं उनको भी हमें इस दृष्टिसे देखना चाहिये। प्रमुका-मोहनीय कर्म क्षीणप्रायः होनेसे उन्हे शारीरिक कष्ठोंमें उतनी आत्म वेदना नही होनी चाहिये कि जितनी हमारी विमुग्ध दृष्टि कल्पना कर सक्ती है। महात्माओंको ऐसे कष्ट किसी गिनतीमें नहीं होते. । सरल और निर्बल प्राणिको एक ही प्रकारका प्रहार समान अतरकारक नहीं होता वैसे ही ज्ञानी और अज्ञानियोंको एक प्रकारका संकट समान प्रभावोत्पादक नहीं होता। जैसे हाथीकी चौड़ी पीठमें मारी हुई लकड़ीकी चोट उसके किप्ती लेखेमें नहीं होती परन्तु वही लकड़ी की चोट एक क्षुद्र कुत्तेको मृतःप्राय कर डालती है। वैसे ही एक प्रकारका कष्ट विरक्त आत्माको यद्यपि अकिंचितकरसा होता है। . परन्तु रक्त आत्माको तो धूलमें लौटाने जैसा बना देती है। वीर

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