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[१५] 'प्रमुको जो महा वेदनाएँ उठानी पड़ी थीं वे जैसी हमें भयङ्कर तथा
असत्य भासती है उन्हे वैसी न थी। इनकी सहिष्णुता अद्भत थी। सच्चे क्षत्रियको रण संग्राममें लगे हुए तलवारक घाव काटेके समान वेदना भी नहीं देते क्योंकि उसे उस समय यह देह किंचितवत मालूम होता है। यदि उसे भी उस समय जितनी हम कल्पना करते हैं उतना कष्ट होता हो तो वह कभी इतनी शूरवीरताके कार्यमें प्रवृत हो नहीं सकता । हम कई वैर दूसरोंकी आपत्तियोंका अपनेमें आरोप कर अपने रागद्वेपानुपार उनमेंसे प्रकट होती हुई सुख दुःखकी लागनियोंका अनुभव करते हैं परन्तु इस प्रकार आरोप करते समय हम एक महत्वकी बात आरोप करना भूल जाते हैं। वह आपत्तिका आरोप जिसमें हम अपने आपकी कल्पना करते हैं उस व्यक्ति विशेषकी आत्म स्थितिका है उस स्थितिका लक्ष दिये बिना ही किया हुआ यह स्थूल आरोप हमें एक भारी भूलमें ला पटकता है, सत्यके एक आवश्यक अंगसे हमे वंचित रख देना है। वीरपरमात्माके कप्टकी कल्पना कर उसमें से निकलते हुए साररूप उनकी सहिष्णुताकी हम स्तुति करें उसके साथ हमे उनकी विरक्तता तथा उनके अगाध आत्मबलकी कल्पना करना भी नहीं भूलना चाहिये । उस सहिष्णुताके उत्पत्ति स्थानका जो विचार करना हम भूल जाय तो प्रमुके चरित्रमें से निकलता हुआ सार हमारे लिये अर्को निष्फल चला जावेगा। आत्माके किसी उत्तम वर्तनकी स्तुति करनेके साथ यदि यह नहीं देखा जाय कि यह वर्तन आत्माके किस अंशमें उद्भवित हुआ है तो वह थूल वर्तन हमें विशेष लाभप्रद नहीं होता। वाह्य वर्तनमें मात्र