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भावना होती है, उसीसे आकर्षित होकर उन्होंने प्रभुके विवाहका प्रबन्ध करना प्रारंभ किया यौवनावस्था, धन-धान्यकी विपुलता, यथेचा भोग प्राप्तिकी सुलभता और उत्कृष्ट रूप तथा प्रमुत्व आदि और विपर्यविकारोत्पत्ति आदिकी सामग्रियोंके होते हुए भी भाग्यशाली. वीरके हृदय विकारका स्पर्श मात्र भी नहीं हुआ था। उनके एकर रोममें भोग भोगनेकी वासना अवशेष नहीं रही थी। परन्तु पुत्रवत्सल माताका जो कि प्रमुको विवाहितकर अपनी स्नेह तृप्तिं करनेको बड़ी आतुर थी-प्रभुने कुछ विरोध नहीं किया। विरोध करके अपने मातापिता स्नही हृदयको दुःखाना उन्होंने अनुचित समझा। यह सोचकर प्रभुने माताके वचनोंको सहर्ष स्वीकार किया। तीर्थङ्करोंका हरएक कार्य आदर्श उदाहरण स्वार होता. है और यदि मैं मातृ आज्ञाकी अवहेलना करूँगा तो उक्त नियमका भंग होगा । देवीने प्रमुसे कहा " नंदन तुम हमारे आंगनमें आये हो इससे हम अपने भाग्यको सराहते हैं, तुम्हारा हमारे यहाँ अवतीर्ण होना हम हमारे पूर्व भवके महान् पुण्यका विपाक समझते हैं जिनके दर्शनोंकी इन्द्रादि देवताओंको भी सतत इच्छा रहती है ऐसे तुम हमारे यहांपर उत्पन्न हुए, यह सौभाग्य हमारा सचमुच ही अद्वितीय है। हम जानते हैं कि आपका निर्माण तीनों लोकोंको स्वातंत्र और मोक्षादिका मार्ग दिखानेके लिये हुआ है और आपका यह निवास तो मात्र हमें अपनी क्रीड़ा दिखाने के लिये ही है । तथापि हमारी स्नेहाद्रि हृदय पुत्र प्राप्तिकी भावनाका परित्याग करनेमें असमर्थ है। अतः अन्य किसी हेतुके लिये नहीं परन्तु हमें प्रसन्न रखनके लिये ही हमारे विवाहके