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संस्कृति बेजोड़, अद्वितीय व असाधारण मानी जाती है। इस भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक सबल व श्रेष्ठ पहलू है-नमन की संस्कृति। सत्यं शिवं सुंदरम्
भारत अवतारों की जन्म-भूमि, संतों की पुण्यभूमि, योगियों की योगभूमि, वीरों की कर्मभूमि और विचारकों की आधारभूमि रहा है। इस धरा के कण-कण में सौरभ, सुषमा, सौंदर्य एवं संगीत के स्वर हैं। आत्मा में ममत्व, माधुर्य तथा आकर्षण है और संस्कृति में वैभव, वीरता, त्याग एवं बलिदान का सौष्ठव है। सचमुच भारत अमृत-कुंभ है। इसे अहिंसा व सत्य का महाकुंभ कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। संक्षेप में कहें तो भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता हिमालय के समान ऊंची, विशाल और अडिग रही है। यह भूमि महासागर के समान समृद्ध तथा पृथ्वी के समान गंभीर और प्राचीन है। महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर के 'सत्यं शिवं सुंदरम्' का यह देश-जिसका लक्ष्य सच्चिदानंद रहा है-भारतीय संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, धर्म, समाज और दर्शन का प्राण हैं।
यहां अनेक समाज-रत्न, नर-रत्न, धर्म-रत्न, राष्ट्र-रत्न और देश-भक्त पैदा हुए हैं। जिन्होंने मानव-मन की शुष्क धरा पर स्नेह की सुर-सरिता प्रवाहित की है तथा जन-मन में संयम और तप की ज्योति जलाई है। अपनी साधना, तप-त्याग व पुरुषार्थ के बल पर उन्होंने मानवता के अनेक कार्य किए हैं और अध्यात्म का पथ प्रदर्शित किया है तथा स्व-पर का कल्याण किया है। पुष्प की सुरभि, चंद्रमा की शीतलता एवं सूर्य का प्रकाश और तेज यद्यपि उनके साथ ही बंधे रहते हैं। महापुरुषों के गुण-सुवास, सौम्य-स्वभाव और ज्ञान का प्रकाश उनके साथ तो रहते ही हैं, पर जब वे महापुरुष अपनी साधना व कर्तव्य का पालन करते हुए इस धरती से चले जाते हैं, तब भी उनके असाधारण गुण युगों-युगों तक संसार को सुवासित और प्रकाशित करते रहते हैं।
___भारत सदैव त्याग और वैराग्य का केंद्र स्थल रहा है। आज तक जो भी विभूतियां संसार में पूजनीय, वंदनीय एवं स्मरणीय बनी हैं, उनके जीवन में नैसर्गिक अध्यात्मवाद कूट-कूट कर भरा रहा है। निस्संदेह भौतिक-विज्ञान की अपेक्षा आत्म-विज्ञान कहीं अधिक सूक्ष्म, गहन और कल्याणकारी है। यह सदा-सर्वदा हितकर और मंगलप्रद रहा है। इसमें कभी, कहीं, किसी तरह के अहित की संभावना नहीं रहती है। मानव विकास की चरम परिणति भौतिकवादी अभ्युत्थान में नहीं, वरन आध्यात्मिक गतिशीलता और आत्म-कल्याण में ही है। कहा भी है
२ / लोगस्स-एक साधना-१