Book Title: Logassa Ek Sadhna Part 01
Author(s): Punyayashashreeji
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 209
________________ समाधान की भाषा में बतलाया गया कि ध्यानात्मक स्थिरता के परिपुष्ट होने पर ध्येय आलेखित जैसा प्रकट होता है, स्वरूपता को प्राप्त करता है। अर्हत् का ज्ञानात्मक भाव तीन प्रकार से वर्णित हैं १. अर्हत् के गुणों का भिन्न-भिन्न रूप में चिंतन करते हुए अपने में प्रकट होने की कामना करना । २. समस्त अर्हत् गुणों का पंजीभूत चैतन्य पिंड, जिसका समग्रता से चिंतन करना । भाव अर्हत् में तदाकार होना । ३. परमात्म भाव - पूर्ण पारिणामिक भाव, स्वरूप चैतन्य में स्थित होना । यद्यपि राग-द्वेष मुक्त होने के कारण तीर्थंकरों का सबके प्रति समभाव है फिर भी भक्त 'तित्थयरा मे पसीयंतु' कहकर अपनी कृतज्ञता और आत्मशक्ति जागृत करता है क्योंकि भगवान मध्यस्थ हैं, भक्तों के हृदय में भी रहते हैं और वीतराग भी हैं । कितना यथार्थ कहा गया भक्ति भावि चित्त से अनाहूत सहायस्त्वं त्वमकारणवत्सलः । अनभ्यर्थित साधुस्त्वं, त्वमसंबंधबांधवः ॥ अर्थात् प्रभो! तुम अनामंत्रिक सहायक हो, अकारण वत्सल हो, अभ्यर्थना न करने पर भी हितकर हो, संबंध न होने पर भी बंधु हो । तव चेतसि वर्तेहं इति वार्तापि दुर्लभा । मच्चिते वर्तसे चेत्वमलमन्येन केनचिद् ॥ प्रभो! मैं तुम्हारे चित्त में रहूँ यह बात दुर्लभ है, तुम मेरे चित्त में रहो यह हो जाये तो फिर मुझे और कुछ नहीं चाहिए । जिज्ञासा की गई कि योगी लोग भगवान का ध्यान हृदय कमल में क्यों करते हैं? स्व में उद्भूत इस जिज्ञासा का समाधान आचार्य सिद्धसेन दिवाकर स्वयं खोज लेते हैं कि भगवान भी तो अक्ष (आत्मा) ही हैं अतः योगी लोग समझते हैं कि वे भी तो कहीं न कहीं कमल में मिलेंगे, तो चलो हृदय कमल में ही खोजें, आखिर अक्ष मिलेगा कमल में ही। यहां पर अक्ष के दो अर्थ अभिव्यक्त हैं- आत्मा और कमलगट्टा । उपर्युक्त विवेचन के निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि अर्हत् भगवान का ध्यान अतीव चामत्कारिक होता है । इहलोक और परलोक का वैभव तो क्या चीज है, भगवान का भक्त तो जन्म-मरण के प्रतीक इस क्षणभंगुर शरीर का सदा के लिए परित्याग कर परमात्मा बन जाता है । तित्थयरा में पसीयंतु / १८३

Loading...

Page Navigation
1 ... 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254