Book Title: Logassa Ek Sadhna Part 01
Author(s): Punyayashashreeji
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 212
________________ अर्हत् धर्म, केवली भाषित धर्म की शरण अन्तिम निष्पत्ति के रूप में एक ऐसी स्थिति निर्मित करती है कि उसको उपलब्ध हो जाने के पश्चात् प्राणी की भव भ्रमण यात्रा अन्तिम रूप में परिसम्पन्न हो जाती है, यही 'तित्थयरा में पसीयंतु' का रहस्य है । किंवदन्ति है कि अमृत को पीने वाला प्राणी अमर हो जाता है, न उसे कभी बुढ़ापा आता है और न ही वह कभी मरता है । अमृत के लिए तो यह केवल कल्पना ही है परन्तु भगवान की वाणी का पान करने वाला भक्त तो वास्तव में अजर-अमर हो जाता है, कर्म मुक्त हो जाता है। मोक्ष पाने के बाद न जरा है और न मरण है। मुक्त आत्मा सदा एक रस रहती है । वृद्धत्व और जरा अर्हतों की वाणी रहस्यमयी होती है । 'पहीणजरमरणा' में 'जरा' शब्द का प्रयोग हुआ है, वृद्धत्व का नहीं, दोनों में अन्तर है । जरा और वृद्धत्व के अन्तर का निराकरण डॉक्टर दयानंद भार्गव ने अत्यन्त सुन्दर और यथार्थ रूप में चित्रित किया है निर्जरा शब्द के माध्यम से । 1 निर्जरा शब्द में 'जरा' शब्द पर ध्यान दें । जरा का अर्थ है बुढ़ापा । बुढ़ापे का अर्थ है विकास का अवरुद्ध हो जाना । जहाँ प्राण का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है वहाँ विकास रूक जाता है । मानो बुढ़ापा आ जाता है। बुढ़ापे का संबंध वर्षों से नहीं है । आठ वर्ष के बच्चे का भी यदि विकास रूक गया हो तो वह बूढ़ा हो गया। अस्सी वर्ष का व्यक्ति भी यदि विकासशील है तो वह जराग्रस्त नहीं है । कालिदास ने वृद्धत्व और जरा के बीच भेद किया है - अनुभव समृद्धता वृद्धत्व है और विकासशीलता का समाप्त हो जाना जरा है । जरा प्राण के प्रवाह के भेद हो जाने का परिणाम है । स्वेच्छा से दुःख के प्रतिकूल परिस्थितियों को आमंत्रित करके साधक प्राण के प्रवाह को गति देता है । विकास का अवरोध समाप्त हो जाता है । 'जरा' का चला जाना ही निर्जरा है। निर्जरा के लिए एक शब्द है - विधूननम् - प्रकंपित कर देना । जैसे पक्षी पंखों को हिलाकर सारे रज- कणों को धून डालता है वैसे ही जो निर्जरा करने वाला है वह अपनी सत् प्रवृत्ति के द्वारा कर्म-रजों को धून डालता है, प्रकम्पित कर, झाड़कर साफ कर डालता है । निर्जरा प्रकंपन की प्रक्रिया है । इसमें व्यक्ति अवांछनीय प्रकम्पनों के प्रति वांछनीय प्रकंपन / शक्तिशाली प्रकंपन पैदा कर उसको समाप्त कर देता है, पुराने संग्रह को सामप्त कर देता है । लोगस्स में उत्तम वर्णों का संयोजन ही इस प्रकार का है जो बोलते अथवा १८६ / लोगस्स - एक साधना - १

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