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बौद्धिक चेतना का पूर्ण रूपेण विकास तो होता है पर आध्यात्मिक चेतना उनमें प्रसुप्त एवं अप्रकट है। जब तक मानस में सुषुप्त आध्यात्मिक चेतना का जागरण नहीं हो जाता है तब तक समस्याओं के चक्रव्यूह को तोड़ा नहीं जा सकता ।
जैन दर्शनानुसार बौद्धिक क्षमताओं के विकास का संबंध उसके ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम से तथा आध्यात्मिक चेतना का संबंध मोहकर्म के उपशम, • क्षय अथवा क्षयोपशम से है । यदि व्यक्ति में मोहकर्म का आवरण प्रबल है तो उसमें आध्यात्मिक चेतना का विकास संभव नहीं है फिर चाहे वह व्यक्ति कितना ही बड़ा विद्वान, वैज्ञानिक या वकील हो । मोहकर्म के अस्तित्व के कारण ही राग-द्वेष और राग-द्वेष के कारण क्रोध, मान, माया, लोभ जैसे आवेग तथा हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा (घृणा), काम-वासना जैसे उप आवेग उत्पन्न होते हैं। इन आवेगों, उप आवेगों की विद्यमानता में व्यक्ति का विकास अवरूद्ध हो जाता है, इनका उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय करके ही वह आध्यात्मिक चेतना का विकास कर सकता है। अतः सुखमय जीवन जीने के लिए बौद्धिक विकास के साथ आध्यात्मिक विकास भी आवश्यक है ।
लोगस्स स्तव के निमित्त से साधक वीतराग स्तुति और आत्मगुण विकास के संकल्प को पुष्ट करता हुआ जैसे-जैसे असत् प्रवृत्तियों से दूर हटता है और सत् प्रवृत्तियों से चित्त को भावित रखता है वैसे-वैसे आत्म-उन्मुखता और पर पराङ्मुखता आती जाती है ।
कीर्तन और आध्यात्मिकता
सही दृष्टिकोण और आत्म संयम, आत्मा के ये दो ऐसे दुर्लभ गुण हैं जिनकी प्राप्ति से अपने मूल स्वरूप को प्राप्त किया जा सकता है। निश्चय नयानुसार आत्मा शुद्ध, बुद्ध और आनंदमय तत्त्व है। क्रोध आदि उसके विभाव हैं जो आत्मा को विकृत बनाते हैं। आत्मा को विभाव से स्वभाव की दिशा में उत्प्रेरित रखने हेतु लोगस्स की स्तुति में कहा गया है
कित्तिय वंदिय मये जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । आरोग्ग बोहि लाभं समाहिवरमुत्तमं दिंतु ॥
अर्थात् किर्तित (मन से नाम व गुणों का स्मरण), वंदित (वचन से नाम व गुणों का स्मरण) मेरे द्वारा लोक में जो ये उत्तम सिद्ध हैं, वे मुझे आरोग्य, बोधि लाभ और श्रेष्ठ उत्तम समाधि दें।
लोगस्स में यह एक ऐसी गाथा है जो कीर्तन से प्रारंभ होकर उत्तम समाधि पर विराम लेती है । प्रमुखतः कीर्तन के दो प्रकार हैं
१६२ / लोगस्स - एक साधना--१