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रक्तेक्षणं समदकोकिलकण्ठनीलं, फणिमुत्कणमापतन्तम् । आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशंकस् त्वन्नाम - नागदमनी हृदी यस्य पुंसः ॥
इस श्लोक को शुद्ध भाव से २१ बार बोल गई। शुद्ध भाव से प्रभु का गुणगान करने से तीर्थंकर गोत्र बांधा जा सकता है; तो क्या जहर नहीं उतर सकता? बस चमत्कार हुआ। पुत्र का जहर उतरने लगा। उसे वमन हुआ, उसका सारा जहर निकल गया और वह अंगड़ाई लेकर उठ बैठा । परन्तु पिता का जहर नहीं उतरा । सास ने कहा-बेटी ! ऐसा क्यों? बहु ने कहा-मां ! सारी बातें बाद में बताऊंगी, पहले मेरे ससुरजी का मस्तक मेरी गोद में रख दीजिए। ससुरजी का मस्तक अपनी गोद में लेकर बहु ने ज्योंहि २१ बार भक्तामर स्तोत्र का उपरोक्त श्लोक बोला, त्योंहि ससुर का जहर भी उतर गया। सास ने बहु से पूछा- बेटी! तूने क्या चमत्कार कर दिखाया जिससे तेरे बोलते ही जहर उतर गया।
बहु ने नम्रता पूर्वक कहा - " मां ! मैंने कोई चमत्कार या जादु नहीं किया, यह तो प्रभु के प्रति अनन्य भक्ति एवं अखण्ड श्रद्धा का चमत्कार है । गुरुदेव से मैंने इस स्तोत्र का अर्थ और परमार्थ भलिभांति समझ रखा है। जब मैं यह स्तोत्र बोलती हूँ, तब मैं अपने मन, वचन और काया को उसमें ओत-प्रोत कर देती हूँ । मेरे चित्त की इतनी एकाग्रता हो जाती है कि मुझे उस समय बाहर का जरा भी भान नहीं रहता। मुझे उसमें अपूर्व आनंद आता है, यही इस चमत्कार का कारण है।
सास समझ गई कि मेरे में इतनी एकाग्रता, अनन्य निष्ठा और श्रद्धा नहीं थी। उसने बहु से कहा- धन्य है बेटी ! तुझे ! तूने वीतराग देव के प्रति श्रद्धा भक्ति से अपना जन्म सार्थक कर लिया। निस्संदेह वीतराग परमात्मा के प्रति अनन्य श्रद्धा भक्ति से आत्मा में सभी प्रकार की शक्ति आ जाती है। इस प्रकार देव, गुरु व धर्म के प्रति अटल श्रद्धा जिनके रोम-रोम में होती है, उनके हाथों में मुक्ति रूपी लक्ष्मी क्रीड़ा करती है, उनके मनोवांछित पूर्ण होते हैं । जीवन का सच्चा आनंद उन्हें प्राप्त होता है ।
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इसी प्रकार की एक घटना आचार्य श्री तुलसी के दिल्ली चातुर्मास की है । एक बार किसी ने जहर युक्त पेड़े बहरा दिये। जिन-जिन साधु-सतियों ने पेड़े खाये, उनके शरीर में जहर ने अपना प्रभाव दिखाया। उस समय रामामंडी की बहन कलावती गुरु उपासना में आई हुई थी । उस बहन ने लोगस्स के पाठ से सबके जहर को उतार दिया। इस प्रकार देव- गुरु व धर्म के प्रति अनन्य श्रद्धा २०२ / लोगस्स - एक साधना - १