Book Title: Logassa Ek Sadhna Part 01
Author(s): Punyayashashreeji
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 236
________________ ७. उद्भूत भीषणजलोदर-भारभुग्नाः शोच्यां दशामुपगताश्चुतजीविताशाः। त्वपाद-पंकजरजोऽमृतदिग्धदेहा मा भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः॥ भक्तामर स्तोत्र के उपरोक्त पद्य की प्रतिदिन एक माला जपने से सर्व रोगों का नाश होता है, उपसर्ग भी दूर होते हैं।१७ निष्कर्ष __ जैन दर्शन ने रोगोत्पत्ति का मूल कारण-तीव्र कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ-आध्यात्मिक दोष) पांचों इंद्रियों के विषय में आसक्ति, हिंसा आदि घोर पाप तथा दुश्चिन्तन आदि को बताया है साथ में यह भी कहा है कि पूर्व जन्मों में उपार्जित/संचित पाप कर्म भी रोगोत्पत्ति के कारण होते हैं। इसी आधार पर जैन दर्शन का निश्चित सिद्धान्त है कि रोगों की उत्पत्ति कार्मण शरीर में होती है, तैजस् शरीर से वे उत्तेजना प्राप्त करते हैं और औदारिक शरीर में अभिव्यक्त होते हैं। उदाहरणार्थ वेद का मूल कारण कार्मण शरीर में स्थित मोहनीय कर्म की नौकषाय की वेद नाम की प्रकृति है। कर्म विपाक से तैजस् शरीर उत्तेजित होता है और इन्द्रिय विकारादि स्थूल औदारिक शरीर में दिखाई देते हैं। अतः इस दृष्टि से साधना के क्षेत्र में कार्मण शरीर को प्रकंपित करना अनिवार्य होता है। आधुनिक विज्ञान ने अनेक सुविधाओं के साथ रोगों की भी देन दी है जिससे मानव संत्रस्त है, उनमें से प्रमुख हैं-दर्द, बेचैनी, अनिद्रा, तनाव, मस्तिष्क पीड़ा, अल्सर, नेत्र और गले संबंधी रोग, रक्तदाब, मधुमेह आदि-आदि। ये रोग शरीर संबंधी भी हैं, मस्तिष्क संबंधी भी हैं और शरीर तथा मन से संबंधित भी हैं। अध्यात्म चिकित्सा के द्वारा इन सब रोगों का इलाज संभव है। साध्वी शुभ्रयशाजी ने "भीतर का रोग भीतर का इलाज" पुस्तक में अनेकों आध्यात्मिक चिकित्साओं का समाधान वैज्ञानिक संदर्भ में प्रस्तुत किया है जो पठनीय, मननीय और आचरणीय है। वर्तमान समय में भी हिमालय के किन्नोर आदि क्षेत्रों में तथा काकेशस पर्वत पर रहने वाले स्त्री, पुरुष जीवनभर निरोगी रहते हैं और दीर्घजीवी होते हैं। १५०-१७५ वर्ष की आयु तक के स्त्री-पुरुष अब भी मिलते हैं, वे जानते ही नहीं कि रोग क्या होते हैं? कारण एक ही है, आधुनिक सभ्यता के चरण वहाँ तक नहीं पहुँच सकते हैं। वे प्राकृतिक जीवन जीते हैं, शांत प्रकृति के हैं, स्वस्थ और सुखी रहते हैं। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि रोग अनेक हैं और औषधियाँ भी अनेक २१० / लोगस्स-एक साधना-१

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