Book Title: Logassa Ek Sadhna Part 01
Author(s): Punyayashashreeji
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 207
________________ (३) मोहनीय कर्म धुएं की व्याकुलता का प्रतीक है। इस कर्म का मुख्य काम जीव को आकुल व्याकुल करना ही है। अनंत अव्याबाध आनंद स्वरूप आत्मा इसी कर्म से बैचेन होकर प्रबल भ्रांति में अनादिकाल व्यतीत करता है। प्रभो! आप वीतरागी है। इच्छा-राग, काम-राग, दृष्टि-राग तथा इच्छा-द्वेष, काम-द्वेष, दृष्टि-द्वेष के विजेता हो अर्थात् मोह रंजित राग-द्वेष से सर्वथा रहित हो, अतः अनंत चारित्र एवं क्षायिक सम्यक्त्व से संपन्न हो। (४) अन्तराय कर्म धुएं की गर्मी का प्रतीक है। इस कर्म के कारण आत्मा उल्लास रहित होकर निस्सत्व बन जाता है। प्रभो! आप अन्तराय कर्म रहित हो अतः अनंत शक्ति संपन्न हो। २. वर्तिक-सामान्य दीपक को प्रकाशित करने हेतु बाती की अपेक्षा रहती है प्रभो! आप तो अपूर्व दीपक हो क्योंकि आप मिथ्यात्व और मोह रूप बाती से रहित हो। ३. अपवर्जित तैलपूरः-दीपक को प्रकाशित करने हेतु तेल की अपेक्षा होती है प्रभो! आप तो अपूर्व दीपक होने के कारण लबालब तेल से रहित हैं। तेल चिकनापन का प्रतीक है। यद्यपि गेंद और तेल दोनों चिकने पदार्थ गिने जाते हैं। पर गोंद का चिकनापन पानी से साफ हो जाता है और तेल का नहीं। यही कारण है कि स्नेह/राग-भाव को तेल की उपमा दी गई है। अर्हत् भगवन्त को राग रूप तेल से सर्वथा रहित होने के कारण अपवर्जित तेलपूरः दीपक कहा गया है। चलिताचलानां मरुतां जातु न गम्यः-सामान्य दीपक पवन से बुझ जाता है और प्रकाश अंधकार में परिवर्तित हो जाता है। प्रभो! अपूर्व दीपक होने के कारण जगत् की कोई भी विकृति रूप पवन आपको विचलित नहीं कर सकता अतः आप अनवरत अनबुझ हैं, सदा जाज्वल्यमान हैं, सदा प्रकाशित हैं। ५. इदं कृत्सनं जगतत्रयं प्रकटीकरोषि-दीपक मर्यादित क्षेत्र को प्रकाशित करता है प्रभो! आप ज्ञान रूप अपूर्व दीपक के प्रकाश से तीनों लोकों को एक साथ प्रकट करते हैं अर्थात् प्रकाशित करते हैं। प्रभो! आप अपरदीपक हैं। मैं भी एक चैतन्य दीपक हूँ जो सामान्य मणिदीप से मूल्यवान हूँ परन्तु मैंने इन मूल्यों और महत्त्वों को बदल दिए है अतः मैं दीपक होने पर भी चार घाती कर्म रूप कालिमा, धुंधलापन, व्याकुलता और गरमाहट से युक्त हूँ। आज आपके ध्यान की अग्नि द्वारा इन कर्मों को क्षीण करना चाहता हूँ। जिस प्रकार सौ बार अग्नि में परिक्षित होकर शुद्ध हुआ स्वर्ण सौटंची तित्थयरा में पसीयंतु / १८१

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