________________
ही मिल सकती है जो सिद्धमय बन जाता है। प्रार्थना आत्मा की शक्ति है और वह तभी सफल होती है जब प्रार्थना करने वाला स्वयं प्रभुमय हो जाता है।१७ प्रार्थना का सूत्र है-तन्मयता, प्रभुमय होने की शक्ति का जागरण। जो व्यक्ति अपने पुरुषार्थ को प्रदीप्त करता है, प्रभुमय होने की शक्ति को जगाता है उसकी प्रार्थना सफल हो जाती है।८ प्रभु का आदेश है-पवित्र रहो, बुरे आचरण मत करो, ईमानदार रहो-इनका अनुसरण करने वाला ही 'सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु' पद को सार्थक करने का अधिकारी है। संसार में जितने भी विशिष्ट व्यक्ति हुए हैं-राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा आदि, उन्होंने वही रास्ता चुना जो ऊँचाई की
ओर ले जाता है। मोक्ष या निर्वाण की ओर ले जाता है। इसी रास्ते पर चलकर ही वे महापुरुष बने।' तन्मयता का अभ्यास करना, प्रभु के मार्ग और आदेश का अनुसरण करना ही वास्तव में प्रार्थना है। निष्कर्ष
__ जैन साधना में स्तुति का स्वरूप बहुत कुछ भक्तिमार्ग की जप साधना या नाम स्मरण से मिलता है। इसके माध्यम से साधना के आदर्श-तीर्थंकर या सिद्ध भगवन्त किसी उपलब्धि की अपेक्षा को पूरा नहीं करते। वे तो मात्र हमारी साधना के आदर्श या प्रकाश स्तंभ हैं जिनका अनुसरण कर साधक आत्मोत्कर्ष तक पहुँच सकता है।
__जयाचार्य ने चौबीसी में वीतराग आत्माओं के प्रति सर्वात्मना समर्पित होकर किस तरह भक्तिरस को उभारा है वह सचमुच पठनीय है। वे अर्हत् के प्रति सर्वात्मना समर्पित सोद्देश्य हुए क्योंकि उन्हें अर्हत् की भूमिका तक पहुंचना था। जो जैसा होना चाहता है उसे उसी की शरण में जाना होता है। जैसा कि उन्हीं के शब्दों में, अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ के प्रति भावना अभिव्यक्त करते हुए लिखा है
"शरणै आयो स्वाम रै जी, अविचल सुख ने काज"।२० अर्थात् मैं शाश्वत सुखों की प्राप्ति के लिए तुम्हारी शरण में आ रहा हूँ, जिन शाश्वत सुखों को आपने पा लिया है। इस तरह दसों गीतों में शरण/समर्पण के भाव प्रकट किये हैं।
__ निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि आवर्तन में उत्पन्न आस्था शब्दों की यात्रा बनकर अविनाशी आत्म प्राप्ति का साधन बन जाती है। क्रिया के दीपक में भावों की ज्योति होनी चाहिए। आचार्य सिद्धसेन ने भी कहा है-"तस्मात् क्रिया प्रतिफलन्ति न भावशून्याः”२१ भाव शून्य क्रिया सफल नहीं होती। शब्द, अर्थ और
लोगस्स एक विमर्श / ८७