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एक-दो-तीन अथवा सभी स्थानों का स्पर्श किया। (आवश्यक नियुक्ति-२७१)
नियमतः मनुष्य गति में शुभ लेश्या वाले स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक जिन्होंने इन बीस स्थानों में से किसी एक का भी अनेक बार स्पर्श किया हो, उसके तीर्थंकर गोत्र का बंध होता है। भगवान ऋषभ का धर्मतीर्थ
जिस दिन भगवान ऋषभ को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, उसी दिन भरत की आयुधशाला में 'चक्र रत्न' की उत्पत्ति हुई। भरत की ज्ञानोत्पत्ति और चक्रोत्पत्ति-दोनों के विषय में निवेदन किया गया। भरत ने सोचा पिता की पूजा कर लेने पर चक्र स्वयं पूजित हो जाता है क्योंकि पिता पूजार्ह होते हैं। चक्र एहिक होता है अर्थात् इहलोक के सुख का हेतु होता है और पिता (तीर्थंकर) परलोक के लिए सुखावह है। (इसलिए चक्र की पूजा से पूर्व पिता की पूजा करनी चाहिए) भरत मरुदेवा के साथ भगवान ऋषभ के दशनार्थ गया। भगवान ने धर्म का उपदेश दिया। भरत का पुत्र ऋषभसेन प्रव्रजित हुआ। ब्राह्मी और मरीचि की दीक्षा हुई। भरत के पांच सौ पुत्र तथा सात सौ पौत्र थे। वे सभी कुमार एक साथ उस समवसरण में प्रव्रजित हो गये। उसी समवसरण में भगवान ऋषभ ने प्रवचन (देशना) के मध्य कहा"मरुदेवा सिद्धा" अर्थात् मरुदेवा आठ कर्मों के बंधनों को क्षीण कर सिद्ध, बुद्ध व मुक्त हो गई।
भगवान ने जब कहा-'मरुदेवा सिद्धा' तब उस समवसरण में भरत का पुत्र ऋषभसेन जो वहीं उपस्थित था, उसके पहले से ही गणधर नाम गोत्र का बंध हो चुका था, उसको विरक्ति हुई और वह भी प्रव्रजित हो गया। ब्राह्मी ने दीक्षा ली। भरत श्रावक बना। सुंदरी भी दीक्षित होना चाहती थी पर भरत ने निषेध कर दिया
और कहा यह मेरी "स्त्रीरत्न" होगी। तब उसने श्राविका धर्म स्वीकार किया। इस प्रकार चतुर्विध संघ की (तीथ) स्थापना हुई।
नोट-भरतजी को गृहस्थ वेश (राजा) में ही आरिसा भवन में केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, देवों ने मुनि वेश अर्पण किया। उसी स्थान पर उनकी सात पीढ़ियों को केवलज्ञान होता रहा। नाम स्मरण का माहात्म्य
लोगस्स के निम्नोक्त तीन पद्यों में नाम स्मरण/नाम मंत्र की महत्ता को उजागर करते हुए नाम पूर्वक चौबीस ही तीर्थंकरों को वंदन किया जाता है
१. इन तीर्थंकरों के शासन में कुछ नए व्यक्तियों ने भी तीर्थंकर गोत्र बांधा जिनके नाम देखें परिशिष्ट
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१६४ / लोगस्स-एक साधना-१