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लोक क्या है?
___ लोक शब्द के अनेक अर्थ हैं-विश्व, देखना, संसार, मनुष्य आदि। जैन वाङ्मय में षट् द्रव्यात्मक सम्पूर्ण दुनिया को लोक माना गया है। यहाँ लोक शब्द 'षट् द्रव्यात्मको लोकः अर्थ रूप में प्रयुक्त हुआ है। भगवान महावीर ने वनस्पति को दीर्घलोक और अग्नि को दीर्घलोक शस्त्र कहा है। इस आधार पर आचारांग का दूसरा अध्ययन लोक विजय (विचय) है। इस शब्द का अर्थ है संसार की मोह-माया पर विजय। इस प्रकार इस नाम से पराक्रम और पुरुषार्थ की प्रेरणा मिलती है। यह अध्ययन आत्मचिंतन एवं वैराग्य मूलक चिंतन युक्त होने से इसका नाम भी सार्थक है। इस प्रकार विषय और कषाय रूपभाव लोक पर विजय प्राप्त करने की प्रेरणा देना भी इस अध्ययन का मुख्य घोष है। बारह भावनाओं में भी एक लोक स्वरूप भावना है। पुण्य, पाप, बंध, मोक्ष आदि का ज्ञान एवं चिंतन लोक स्वरूप भावना में किया जाता है।
इसको इस प्रकार भी समझा जा सकता है-लोक का अर्थ है-जीव समूह तथा उसके रहने का स्थान। जिसमें हम भी एक हैं। जैसे एक घर में रहने वाला सदस्य अपने घर के संबंध में विचार करता है, उसके आधार, उत्थान की चिंता । करता है। वैसे ही सभी मनुष्य इस लोक रूपी गृह के सदस्य हैं। अतएव अन्य सभी जीव समूहों के साथ उसका भी यहाँ दायित्व है। जो जीव धर्म का आचरण करते हैं वे इस लोक में सुखी बनते हैं, उच्च जाति व उच्च कुल में जन्म लेते हैं। जो अधर्म का आचरण करते हैं वे नरक निगोद आदि दुर्गतियों को प्राप्त कर असह्य कष्ट पाते हैं। लोक का स्वरूप
यहाँ अंतरिक्ष विज्ञान संबंधी वैज्ञानिक धारणा का उल्लेख भी आवश्यक है। एक बार सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टीन ने कहा था-नक्षत्र, तारे दूर-दूर भागते दिखाई देते हैं अतः लोक विस्तृत होता जा रहा है। काफी समय तक यह धारणा चलती रही लेकिन वर्तमान युग के भौतिक विज्ञानी स्टीफेन हाकिंग ने सन् १६८८ में दृढ़ स्वर में यह निश्चय किया था कि लोक शाश्वत और सीमित है। उसका आकार घटता-बढ़ता नहीं है। सदा एक-सा रहता है। न इसका कभी प्रारंभ हुआ और न अन्त होगा। यही सिद्धान्त जैन आगमों में वर्णित है।
जैन दर्शनानुसार सृष्टि चक्र अनादि काल से चल रहा है। विश्व की व्यवस्था स्वयं उसी में समाविष्ट नियमों के अनुसार होती है। ये नियम जीव और अजीब से विविध जाति संयोग से स्वतः निष्पन्न हैं। इसमें ईश्वर कर्तृत्व का अस्वीकार स्वतः स्फुट है। स्थानांग सूत्र में विश्व व्यवस्था के संचालक दस नियमों का उल्लेख है जैसे जीव का अजीव व अजीव का जीव नहीं बनना, जीवों का बार-बार
लोगस्स एक धर्मचक्र-१ / १३१