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और अंतिम भंग को कम करने से अवशिष्ट भंग अनानुपूर्वी रूप है । *
गणित में अनुयोग द्वार में कथित तीनों ही क्रम प्रयुक्त होते हैं। वैज्ञानिक जगत् में भी जब स्पूतनिक आदि आकाश में छोड़े जाते हैं तब विपरीत गणना बोली जाती है, यथा १०, ६, ८, ७, ६, ५, ४, ३, २, १, ० और स्पूतनिक छोड़ दिया जाता है ।
निष्कर्ष
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि लोगस्स के उच्चारण से केवल चौबीस अर्हत् भगवन्तों की एवं बीस विहरमानों की ही स्तुति नहीं होती अपितु सब तीर्थंकरों का एक समान स्वरूप होने के कारण अनंत वीतराग आत्माओं, सिद्ध आत्माओं की स्तुति एक साथ हो जाती है। क्योंकि भूतकाल में अनंत चौबीसियां हो चुकी हैं और भविष्य में भी अनंत चौबीसियां होने वाली हैं । सिद्ध जीव भी अनंत हैं ।
ऐसा शक्तिशाली लोगस्स महामंत्र हमें विरासत में मिला है। यह एक दिव्य साधना भी है, स्वाध्याय, स्तुति, ध्यान, मंत्र, उपासना और आराधना भी है । इस महामंत्र को हम चैतन्य करें और आत्म-सिद्धि के पथ पर अग्रसर बनें यही स्तुत्य है । निस्संदेह शास्त्र, मंत्र और साधना- तीनों ही दृष्टियों से यह शक्तिशाली और महत्त्वपूर्ण है ।
संदर्भ
१.
२.
३.
४.
८.
६.
भगवती - २५-७, उववाई सूत्र ४२
दसवैकालिक - बिइया चूलिका / १२
५.
६. अनुयोग द्वार कालिका श्रुत परिणाम - संख १४७
७.
जिनवाणी, प्रतिक्रमण विशेषांक पृ. १६६, श्री प्रेम चंद जैन के लेख से उधृत ।
दसवैकालिक नियुक्ति -१३, १४
आचारांग टीका - पृ. ५६
१०.
मूलाचार - ५-८०, जयधवला, पृ. १५३, ओघनियुक्ति टीका पृ./३ ११. विशेषावश्यक भाष्य-गा. ५५०, वृहत्कल्प भाष्य-गा. १४४, तत्त्वार्थ भाष्य १.२०, स्वार्थ सिद्धि - १.२८
उत्तराध्ययन- ६ / २
दसवैकालिक विइया चूलिका - / १६ चौबीसी–१६/६
*
१२.
वृहत्कल्प भाष्य, गाथा / ६६४
१३.
आवश्यक नियुक्ति - ६४५/२
१४. इसिभासिय सुत्त (जैन धर्म की व्यापकता पृ./ ११ से उधृत)
देखें परिशिष्ट १/२
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आगम युग का जैन दर्शन
लोगस्स एक सर्वे / ७३