________________
समाधान की भाषा में गुरुदेव ने कहा-आत्म-कर्तृत्व और शरणागति में विरोध कहाँ है? जैन परम्परा में अर्हत्, सिद्ध, साधु और धर्म-इस चतुर्विध शरण का महत्त्व है। इसमें शरणागत को क्या मिलता है? लेना देना कुछ नहीं है। यह तो आन्तरिक समर्पण और श्रद्धा की अभिव्यक्ति है। आराध्य और आराधक का अद्वैत है। आराध्य के प्रति समर्पण है, सौदा नहीं। “सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु" "आरुग्ग बोहि लाभं समाहिवर मुत्तमं दितु"-आदि वाक्यों का मंत्राक्षर के रूप में स्मरण किया जाता है। यह प्रक्रिया आत्म-कर्तृत्व में कहाँ बाधक बनती है? समर्पण के अभाव में होने वाला कर्तृत्व अहंकार पैदा कर सकता है। मैं सब कुछ कर सकता हूँ, फिर मैं किसी की शरण क्यों स्वीकार करूं? यह चिंतन अभिमान का सूचक है। इससे जुड़ा हुआ कर्तृत्व जीवन को संवारता नहीं, व्यक्ति को दिगभ्रान्त बनाता है।
उपासना क्यों करनी चाहिए? इसी प्रश्न का समाधान आचार्यश्री ने "ज्योति जले, मुक्ति मिले" में बहुत ही सुन्दर तरीके से दिया है- “कुछ लोग इस भाषा में सोचते हैं कि ईश्वर ने हमें पैदा किया है, वह हमारी सार संभाल करता है, इसलिए हमें उसकी उपासना करनी चाहिए। मेरी दृष्टि में यह चिंतन सही नहीं है। माता-पिता भी पैदा करते हैं, वे भी सार संभाल करते हैं। ऐसी स्थिति में यह ईश्वर की उपासना का कोई आधार नहीं बनता। इस दृष्टि से परमात्मा की उपासना करना कोई महत्त्व की बात नहीं है। ईश्वर घट-घट व्यापी है, इसलिए उसकी उपासना करनी चाहिए, यह भी कोई संगत बात नहीं है। आकाश से बढ़कर कोई व्यापक तत्त्व सष्टि में है ही नहीं। तब प्रश्न पैदा होता है कि उपासना का उद्देश्य क्या होना चाहिए? इसका सीधा-सा समाधान है-हमारा मन व्यग्र है। वह इधर-उधर भटकता रहता है। हम ईश्वर को केन्द्र-बिंदु (आधार) मानकर अपने भटकते मन को एकाग्र बना सकें। जो परमात्मपद हमें पाना है, उस पर हमारी बुद्धि और चिंतन केन्द्रित बने। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि साधना में तल्लीनता हुए बिना सफलता प्राप्त नहीं होती। अर्जुन यदि एकाग्र और तल्लीन नहीं होता तो लक्ष्य को कैसे बेध पाता? द्रोणाचार्य की परीक्षा में उत्तीर्ण कैसे हो पाता? हम भी एकाग्रचित्त होकर ही अपने लक्ष्य को बेध सकते हैं"।
उपासना के दो रूप
उपासना के दो रूप हमारे सामने आते हैं-१. भक्ति २. आचार। इन दोनों का सामंजस्य अपेक्षित है। दोनों का समन्वित रूप ही उपासना का वास्तविक रूप है और इसी से लक्ष्य की संसिद्धि संभव है। चतुर्विंशति स्तव (लोगस्स) करने से
७६ / लोगस्स-एक साधना-१