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समाप्त करके केवल-ज्ञान प्रकट करते हुए अपनी आत्मा को उज्ज्वल एवं प्रकाशमान बनाया है। अनुयोग चूर्णि के अनुसार दर्शन विशोधि, बोधि लाभ और कर्म-क्षय के लिए तीर्थंकरों का उत्कीर्तन करना चाहिए।१० २. चतुर्विंशति स्तव
मूलाचार में चतुर्विंशति स्तव के स्वरूप प्रतिपादन क्रम में स्तव/स्तोत्र के स्वरूप को प्रकाशित करते हुए कहा गया है
असहादिजिणवराणं, णामणिरुत्तिं गुणाकुत्तिं च।
काऊण अच्चिदूण य तिसुद्धपणमो थओ ओ ॥ अर्थात् ऋषभ, अजित आदि चौबीस तीर्थंकरों के नाम की निरुक्ति के अनुसार अर्थ करना, उनके असाधारण गुणों को प्रकट करना, उनके चरणों को पूजकर मन, वचन, काय की शुद्धता से स्तुति करना स्तव कहलाता है। तात्पर्य यह है कि स्तव व स्तोत्र में प्रभु नाम का कीर्तन, उनके गुणों का प्राकाट्य तथा चरण श्रद्धा वांछ्य होती है। राजवर्तिकार ने स्तोत्र के गुण कीर्तन स्वरूप की ओर निर्देश किया है। “चतुर्विंशति स्तव तीर्थंकर गुणानुकीर्तनम्' अर्थात् तीर्थंकरों के गुणों का उत्कीर्तन स्तोत्र या स्तव कहलाता है।
स्तव-स्तुति में प्राकृत के कारण व्ययत्व अर्थात् क्ति प्रत्यान्त का पर निपात किया गया है। स्तव शब्द से शक्र-स्तव (णमोत्थुणं) का ग्रहण और “एकादिसप्तश्लोकान्त स्तुतिः" के अनुसार स्तुति में चतुर्विंशति स्तव का ग्रहण माना गया है। भगवान महावीर ने स्तव-स्तुति के साथ मंगल शब्द प्रयुक्त किया है जो इसकी विशिष्टता का द्योतक है।
३. लोगस्स ___यह स्तव लोगस्स के नाम से अधिक लोकप्रिय है। इस स्तव के प्रथम शब्द 'लोगस्स' के आधार पर इसका नाम लोक में 'लोगस्स' के नाम से रूढ़ हो गया। अनुयोग द्वार सूत्र में विवर्णित नामकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत 'आदान-पद नाम' के उल्लेखानुसार भी इस स्तव के इस रूढ़ नाम का औचित्य सिद्ध होता है।
इस प्रकार शिलोग व गाहा छंद में आबद्ध अद्भुत शब्द सौष्ठव पूर्ण इस स्तवन के एक-एक अक्षर में हिलोरे लेता हुआ भक्ति सुधा का सागर केवल उद्गाताओं को ही नहीं श्रोताओं तक के त्रिविध ताप का शमन कर उन्हें अनिवर्चनीय आनंद प्रदान करता है। मन के तार को प्रभु के साथ जोड़ने की इसमें अपूर्व क्षमता है। जिस प्रकार विद्युत केन्द्र से किसी घर के तार का स्विच जोड़ देने
८२ / लोगस्स-एक साधना-१