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१. प्रथम पद्य में समागत अर्हतों की विशेषताएं
१. लोक के उद्योत कर्त्ता
२. धर्म तीर्थ के संस्थापक ३. जिन
४. अरिहंत ५. केवली
२, ३, ५ प्रथम पद्य में गुण रूप स्तुति के पश्चात द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ पद्य में चौबीस अर्हतों की नामोल्लेख पूर्वक स्तुति की गई है। इनमें सभी अर्हतों के एक-एक नाम का उल्लेख हैं पर नवमें सुविधि नाथ के एक द्वितीय नाम पुष्पदंत का भी उल्लेख किया गया है । चरम तीर्थंकर महावीर का इसमें वर्धमान नाम ( जन्म नाम ) दिया गया है ।
यदि पापियों का चिंतन मन को कलुषित बनाता है तो महापुरुषों का नाम सुमिरन, स्तुति, कीर्तन भी मन को पवित्र बनाये बिना नहीं रह सकता । अतः भगवत् नाम को जड़ अक्षर माला ही समझना भ्रांति है। ये अक्षर द्रव्य श्रुत द्वारा भाव श्रुत जगाने का कारण है। इन चंद अक्षरों में कर्म क्षय की अद्भूत शक्ति है। श्रुत केवल आचार्य भद्रबाहु ने ग्रह-शांति निवारणार्थ भी इन सब नामों का मंत्राक्षर के रूप में रंगों के साथ प्रयोग करने का विधान प्रस्तुत किया है। आचार्य मानतुंग ने भी वर्ण साम्य के साथ नक्षत्रों के वर्ण मिलाकर नवकार जप की विधि का उल्लेख किया है । १२
सचमुच शब्द शक्ति का स्रोत है । शब्दों में असीम तरंगें हैं। शब्द-शक्ति, मानस्-शक्ति और भगवत् - शक्ति - ये तीनों शक्तियां मिलकर महाशक्ति को प्रकट करती हैं। इसी तथ्य को उजागर करने वाली गोस्वामी तुलसीदास की निम्नोक्त पंक्तियां बहुत ही मार्मिक और श्रद्धा को पुष्ट करने वाली हैं
नाम निरूपण नाम जतन ते । सोउ प्रकटत जिमि मोल रतन ते ॥
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नाम निरुपण करके ( नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर ) नाम का जतन करने से ( श्रद्धापूर्वक नाम जपने से) वह ब्रह्म ऐसे प्रकट होता है जैसे रत्न को जानने से उसका मूल्य । संत कबीर ने भी नाम स्मरण के विषय में कहा है कि वह स्मरण ऐसा हो कि रोम-रोम में रम जाए
तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ । वारि फेरी बलि गई, जित देखो तित तूं ॥
८४ / लोगस्स - एक साधना - १