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६. लोगस्स एक सर्वे
सिद्ध जीव ही संसारी जीवों को अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आने का स्थान देते हैं। नियम से जितने जीव सिद्ध गति को प्राप्त होते हैं उतने ही जीवों का अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में निर्यात हो जाता है। अर्थात् सिद्ध बनने वाले जीवों ने स्थान रिक्त किया तभी अव्यवहार राशि के जीवों को व्यवहार राशि में आने का स्थान मिला, अतः स्थान देने वाले देव (परमात्मा) हैं। व्यवहार राशि में आने के बाद ही आत्मा का क्रमिक विकास होने से जीव की कर्मों से मुक्ति संभव है।
लोगस्स यह तीर्थंकर स्तुति का महान मंत्र है। यह एक महाशक्ति है। यह भक्ति साहित्य की एक अमर, अलौकिक, रहस्यमयी और विशिष्ट रचना है। जैन समाज में यह इतना मान्य और लोकप्रिय है कि इसको अत्यन्त श्रद्धा एवं महत्त्व का स्थान प्राप्त है। भले ही अक्षर देह से यह इतना विराट और विशाल नहीं है पर आत्म-दर्शन के रहस्य संग्रहित होने के कारण इसमें निहित गूढार्थ सर्व-साधारण के लिए सुग्राह्य नहीं है। इसका अर्थ और भाव इतना गंभीर है कि जितनी बार इसमें अवगाहन किया जाये कुछ न कुछ नवीन रहस्य हस्तगत होते रहते हैं। वास्तव में लोगस्स पारदर्शी मन का निर्माण करने वाली स्तुति है। लोगस्स क्या है?
“लोगस्स........सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु"। यह निर्वाण स्थिति का संपर्क सूत्र है, यदि ऐसा कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस सूत्र में छिपे अर्थ गांभीर्य से ही इस रहस्य को समझा जा सकता है। 'लोगस्स' से लोकयात्रा का प्रारंभ होता है और उसकी अंतिम गाथा का अंतिम चरण 'सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु', यह लोक यात्रा की पूर्णाहुति लोकान्त स्थान ही है, जहाँ सिद्ध परमात्मा रहे हुए हैं। इस प्रकार लोगस्स को निर्वाण स्थिति का संपर्क सूत्र कहने में संदेह को कोई अवकाश नहीं है।
६० / लोगस्स-एक साधना-१