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है। यहाँ वृत्तियों की दिशाएं बदल जाती हैं। कुछ एक वृत्तियों का दमन और कुछ एक वृत्तियों का क्षय होता है। यह सशक्त मानसिक चिकित्सा पद्धति है। फिर भी रोग का समूलतः नष्ट होना आवश्यक है। अतः जैन धर्म क्षयोपशम के पश्चात् क्षायिक पद्धति को प्रस्तुत करता है।
क्षायिक भाव-इसमें पूर्णतः आवेगों का क्षय (अन्त) हो जाता है। यह पद्धति कार्य-कारण की खोज भी करती है और फिर उनकी चिकित्सा भी करती है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि चित्त की निर्मलता ही सम्यक् दर्शन या दर्शन बोधि कहलाती है।
बोधि का जघन्य बिंदु है-क्षयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति। बोधि का मध्यम बिंदु है-क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति। बोधि का उत्कृष्ट बिंदु है-केवल बोधि (केवलज्ञान) की प्राप्ति।
यह हृदय परिवर्तन की ही प्रक्रिया है। वास्तव में हमारी पवित्र भावनाएं ही हमें सिद्धि देने वाली हैं। जैन दर्शन के अनुसार मोहनीय कर्म ही सब कर्मों का सेनानी है। स्तवना आदि से आत्मा की अनंत शक्ति शनैः शनैः प्रकट होने लगती है। पल-पल आर्त व रौद्र परिणाम आत्मा से दूर होने के कारण धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान से आत्मा की अक्षुण्णता, उसकी विरलता, सर्वज्ञता प्राप्त हो शक्ति उद्भाषित होती है। निष्कर्ष
___ यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि अवचेतन मन की भूमिका में पहुंचने वाली ये श्रद्धासिक्त स्तुतियाँ जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धियों का निमित्त बनती हैं। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी कई बार कहते हैं कि जब मैं बच्चा था, मेरी माँ रात्रि के अन्तिम प्रहर में सामायिक किया करती थी और सामायिक में चौबीसी, आराधना और स्वामीजी की स्तुतियाँ गाया करती थी। मैं सोया-सोया उन्हें सुनता रहता था। सुनते-सुनते मेरे मन में भिक्षु स्वामी और उनकी रचनाओं के प्रति सहज आकर्षण हो गया। ___संक्षेप में कहा जा सकता है कि अकल्मष एवं स्वच्छ हृदय से निस्सृत होने से स्तुति का महत्त्व सार्वजनीन है। जिस प्रकार अग्नि शीत का निवारण करती है उसी प्रकार महापुरुषों का स्मरण पापों का निवारण करता है। महापुरुषों की शक्ति आपदाओं विपत्तियों में विशेष प्रकट होती है, जैसे अगर की गंध अग्नि में विशेष प्रकट होती है। अतः न केवल आध्यात्मिक एवं धार्मिक दृष्टि से ही स्तुतियों का महत्त्व है बल्कि साहित्यिक, मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक, सामाजिक आदि दृष्टिकोणों से भी इनकी उपयुज्यता सिद्ध है। आवश्यकता है मात्र धैर्य, विश्वास,
५८ / लोगस्स-एक साधना-१