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होने के कारण साधक को बंधन मुक्त नहीं कर सकते, जैसे भूदेव, नरदेव, अग्निदेव, वायुदेव, नामदेव, स्थापनादेव, क्षेत्रदेव, कालदेव, भावदेव आदि । अतएव मुमुक्षु को दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, वीर्यान्तराय, काम, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, मिथ्यात्व, अज्ञान, निद्रा, अविरति, राग और द्वेष - इन अठारह दोषों से मुक्त देव (अरिहंत) को ही आराध्य मानकर श्रद्धा करनी चाहिए। क्योंकि सत्य का प्रथम साक्षात्कार, केवलज्ञान का प्राप्तकर्ता अरिहंत है। जो कुछ भी सत्यासत्य का प्रकाश उसे प्राप्त है उसी को मुनि या साधु जनसाधारण के सामने व्याख्यायित करते हैं । साधु ने स्वयं सत्य का ज्ञान या साक्षात्कार नहीं किया । मूल अनुभूत सत्य की प्रतिमा अरिहंत भगवान है वही आध्यात्मिकता का सर्वोच्च और पवित्र रूप है। उन्हीं के आध्यात्मिक प्रकाश में संसार का अज्ञानान्धकार नष्ट होता है ।
भगवती सूत्र में उल्लेख मिलता है। कि गणधर गौतम ने भगवान महावीर से पूछा - "भंते! अरिहंत को देवाधिदेव अर्थात् देवताओं से भी श्रेष्ठ देव क्यों कहा जाता है ।" प्रत्युत्तर में भगवान महावीर ने कहा- गौतम ! अरिहंत अनंत - ज्ञान, अनंत-दर्शन आदि दिव्यातिदिव्य गुणों से युक्त होते हैं । वे समस्त देव और देवेन्द्रों के भी पूज्य होते हैं, इसलिए उन्हें देवाधिदेव कहा जाता है । " मानस में तुलसीदासजी ने कहा है
वस्तुतः श्रेष्ठ गुणों की प्राप्ति हेतु नमस्कार किया जाता है । अरिहंत देव के गुण रूपी पुष्पों पर जब हमारा मन रूपी भंवरा मंडरायेगा तो उस अनंत शक्ति के मकरंद का रसास्वादन अवश्य ही करेगा ।
" जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी”
१.
निक्षेप नय के अनुसार अरिहंत की व्याख्या चार नयों से की जाती हैनाम अरिहंत जैसे किसी व्यक्ति को अरिहंत, अर्हदास, जिनदास, ऋषभकुमार, वर्धमान आदि नामों से पुकारा जाता है । वह नाम से अरिहंत है पर उसमें अरिहंत के गुण नहीं हैं।
२.
स्थापना अरिहंत
किसी वस्तु में अरिहंत का आरोपण करना । जैसे मूर्ति आदि में अरिहंत की स्थापना करने पर अरिहंत के गुण उसमें नहीं आते। वह तो एक आकार है । 'वस्तुतः स्थापना, असली वस्तु को समझने के लिए
- जैन- वाङ्मय में स्तुति / २६
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