________________
का उदय। तीर्थंकरों में अन्य नाम कर्म की प्रकृतियों का उदय भी प्रशस्त और अनुत्तर होता है। क्षयोपशम तथा उपशम में होने वाले कार्य भी अनुत्तर होते हैं। क्षायिक भाव अविकल्पनीय' अर्थात् भेद रहित होता है।५ ज्ञान, दर्शन, चारित्र के क्षेत्र में उनकी कोई संसारी प्राणी तुलना नहीं कर सकता, इसलिए उनको लोकोत्तम कहा गया है। ___लोगनाहाणं-(लोकनाथ) चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि राजाओं के एक ही छत्र हुआ करता है किंतु तीर्थंकर भगवान के सिर पर तीन अनुपम छत्र रहते हैं, इससे सूचित होता है कि भगवान तीर्थंकर उर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक-तीनों लोक के नाथ हैं।
_ 'योगक्षेम करो नाथः' जो अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करा दे और प्राप्त वस्तु का वियोग न होने दे, उसे नाथ कहते हैं। तीर्थंकर भगवन्त पहले कभी न पाए हुए रत्नत्रय रूप धर्म को प्राप्त करवाने वाले हैं और जिन्हें पहले प्राप्त है, उनके रक्षक हैं। इस प्रकार योग और क्षेम के कर्ता होने से प्रभु नाथ हैं। वे प्रेम, क्षमा और परम शांति के बल से अपने असीम प्रेम साम्राज्य में विश्व का शासन करते हैं। .
लोगहियाणं-(लोक हितकारी) अर्हत् ही ऐसे उत्तम पुरुष हैं जो बिना किसी स्वार्थ या कामना के अन्यों का हित साधन करते हैं।
___ लोगपईवाणं-(लोक-प्रदीप) लाईट स्वयं प्रकाशित होती है, दूसरों को प्रकाश देती है पर प्रदीप वत् दूसरों को प्रकाशित नहीं कर सकती। प्रदीप सहस्रों-सहस्रों प्रदीपों को प्रकाशित करने में समर्थ है। अर्हत् ऋषभ की स्तुति में आचार्य मानतुंग ने उन्हें 'अपूर्व दीपक' कहा है।५ अपूर्व दीपक को व्याख्यायित करते हुए उन्होंने कहा-संसार में जो दीपक दिखाई देते हैं उनमें धुआं और बाती होती है किंतु आप में द्वेष रूपी धुआं और काम की दस अवस्था रूप बाती नहीं है। दीपक में तेल होता है आप में तेल अर्थात् स्नेह राग नहीं है। दीपक जरा-सी हवा के झोकों से बुझ जाता है, आप प्रलय काल की हवा से भी चलित नहीं होते हो। दीपक एक घर को प्रकाशित करता है किंतु आप तीनों ही लोकों के सम्पूर्ण पदार्थ (नव तत्त्वों) को प्रकाशित करते हो। इस प्रकार आप जगत् को प्रकाशित करने वाले अपूर्व दीपक हो।
लोगपज्जोयगराणं-(लोक में उद्योत करने वाले) अर्हत् लोक प्रद्योतक कहलाते हैं। जब-जब धरा पर अज्ञान अंधकार अपना साम्राज्य स्थापित कर लेता है, जनता सत्य धर्म का मार्ग विस्मृत करने लगती है तब अर्हत् केवल ज्ञान का प्रकाश फैलाकर मिथ्यात्व रूपी तिमिर का निराकरण कर अपनी ज्ञान प्रभा से लोकत्रयी
कर्मों के क्षय से निष्पन्न गुणों में कोई विकल्प या भेद नहीं होता। ये सव एक समान लक्षण वाले और सर्वोत्तम होते हैं।
शक स्तुति : स्वम्प मीमांसा , ०१