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दार्शनिकों ने इनसे भी सूक्ष्म चेतना के स्तरों की चर्चा की है। अवचेतन से परे अतीन्द्रिय चेतना की भूमिका है। जब व्यक्ति संयम, तप, जप, शील, स्वाध्याय, अनित्य आदि अनुप्रेक्षाएं, निर्मल ध्यान, चतुर्विंशति स्तव, महामंत्र जप, इष्ट स्तुति, ॐ, अर्ह, सोऽहं-इत्यादि आलंबनों के माध्यम से अतीन्द्रिय चेतना की भूमिका में प्रविष्ट हो जाता है, तब उसके सम्पूर्ण विरोधाभासों का अपनयन हो जाता है। उसकी कथनी-करनी में सामंजस्य एवं हृदय परिवर्तन होने से उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति में समता परिलक्षित होने लगती है। वीतराग स्तुति हेतु विरचित जयाचार्य कृत चौबीसी में यत्र-तत्र अनेक आलंबन चर्चित हुए हैं। जयाचार्य ने लिखा-हे प्रभो! आपकी तो बात ही क्या? आपका ध्यान करने वाला, आपके साथ तन्मयता या एकात्मकता स्थापित करने वाला व्यक्ति भी शक्ति संपन्न बन जाता है। उसे आध्यात्मिक चेतना की संपदा के साथ-साथ अनेक सिद्धियां भी उपलब्ध हो जाती हैं।"१५
मनोविज्ञान के संदर्भ में हृदय परिवर्तन का अर्थ हो सकता है-मौलिक मनोवृत्तियों का परिष्कार। अध्यात्म की भाषा में इसे दर्शन की विशुद्धि कहा जा सकता है। भगवान महावीर से पूछा गया-"भंते! कषाय प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है?" प्रत्युत्तर में भगवान ने कषाय प्रत्याख्यान के दो परिणाम बतलायें१. वीतरागता २. सुख-दुःख में सम रहने की स्थिति की उपलब्धि
भगवान महावीर की वाणी में कषाय प्रत्याख्यान और मनोविज्ञान की भाषा में मौलिक मनोवृत्तियों के परिष्कार से चेतना का परिष्कार माना गया है। चेतना के परिष्कार से ही व्यक्ति के संस्कार, आचरण और व्यवहार परिष्कृत होते हैं।
अपरिष्कृत मस्तिष्क में एक ही सूत्र उत्पन्न होता है-क्रिया की प्रतिक्रिया करना, जैसा दूसरा करे वैसा करना। परन्तु जब चिन्तन परिष्कृत होता है तब गाली में प्रति गाली नहीं देना, जैसे को तैसा न करना घटित होता है। इससे स्पष्ट होता है कि विचार, आचार और संस्कार-ये तीनों जीवन निर्माण के मूल तत्त्व हैं। इस त्रय समन्विति से व्यक्तित्व में जो लक्षण प्रकट होते हैं, वे निम्न हैं१. अन्तर द्वन्दों से मुक्ति। २. समस्याओं के समाधान में विवेक चेतना की जागृति। ३. उत्तरदायित्व के निर्वाह में कुशलता। ४. सकारात्मकता का विकास। ५. प्रतिकूलता में भी स्वयं को अनुकूल रखने की क्षमता का विकास। ६. शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक स्वस्थता का विकास जिस प्रकार रंगीन काँच की बोतल में पानी रखने से उस पानी के गुण काँच
स्तुति और मनोविज्ञान / ५३